धार्मिक

कुर्बानी की ईद

ईदुल अज़हा, ईमानदारी, सच्चाई और बलिदान की एक ऐसी अद्वितीय घटना है जिसका उदाहरण आज तक कोई कौम पेश नहीं कर सकी। इसलिए अल्लाह ने इस सर्वश्रेष्ठ और उच्चतम घटना को क़यामत तक के लिए जारी रख दिया ताकि ईदुल-अजहा की ऐतिहासिक हैसियत पर दृष्टि रखते हुए मोमिन बन्दे अपने अंदर भी वही जज़्बा पैदा करें, और धरती पर शान्ति, न्याय, सत्य को स्थापित करने के लिये वह सब कुछ क़ुरबान कर दें जो उनके पास उपलब्ध हो ।

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के कर्म अगर एक ओर खुदा की निकटता और खुशी का कारण हैं तो दूसरी ओर हर कदम पर आज्ञाकारिता, विनम्रता, अधीनता, ईमानदारी, निस्वार्थता, धैर्य और शुक्र से परिपूर्ण हैं।

जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है, दरअसल, इस्लाम धर्म जिंदगी के हर क्षेत्र में क़ुरबानी मांगता है, इसमें धन व जीवन की क़ुरबानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कती ठंड या भीषण गर्मी में गरीब, अनाथ, मजबूर, परेशान, बेसहारा लोगों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहने की क़ुरबानी वगैरह अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं,

इस्लाम का बुनियादी उद्देश्य व्यक्तित्व का निर्माण है और ईद का त्योहार इसी के लिए बना है। धार्मिकता के साथ नैतिकता और इंसानियत की शिक्षा देने का यह विशिष्ट अवसर है,

यह त्यौहार हमें 3 महान शख्सियतों के महान बलिदान की कहानी याद दिलाता है- पैगम्बर हजरत इब्राहीम (अलै.), पैगम्बर हजरत इस्माइल एवं बीबी हाजरा। तीनों ने अपनी-अपनी जगह ऐसा प्रेरणादायक बलिदान दिया जिसकी मिसाल मानवीय इतिहास में नहीं मिलती। हिम्मत एवं हौसले, अधिकार व न्याय के अलावा ईद-उल-अज़हा खुशी, आनंद एवं सौगात का दृश्य भी पेश करती है।

यह वह ईद है जिसने पैगम्बर हजरत इस्माइल (अलै.) को शिष्टाचार सिखाया। त्याग एवं बलिदान की ऐसी मिसाल कायम कर दी कि किसी और स्थान पर नजर न आए।

त्याग एवं बलिदान का दायरा बहुत बड़ा है, अल्लाह के नाम पर सिर्फ एक बकरे की बलि देना काफी नहीं है। खुदा का आदेश है कि तुम नेकी (पुण्य) प्राप्त नहीं कर सकते जब तक अपनी उस वस्तु को खुदा की राह में खर्च न करो जिससे तुम मोहब्बत करते हो।

कह दो कि मेरी नमाज़ मेरी क़ुरबानी ‘यानि’ मेरा जीना मेरा मरना अल्लाह के लिए है जो सब आलमों का रब है । (क़ुरआन 6:162)

अल्लाह के पास ना तुम्हारी कुर्बानियों का गोश्त पहुँचता है और ना उनका खून, अल्लाह को सिर्फ तुम्हारा तक़वा पहुँचता है !! (क़ुरआन 22:37)

नेकी की असल आत्मा खुदा का प्रेम है। खुदा के मुकाबले संसार की कोई चीज प्यारी न हो, ऐसा प्यार जो पैगम्बर हजरत इब्राहीम और हजरत इस्माइल ने करके दिखाया है।
कुर्बानी इसलिए जरूरी है कि इंसान तंगदिली और लालच से बाज आए। अपने धन, सामान एवं ऊर्जा सामर्थ्य को खुदा की अमानत समझ कर दूसरों के काम आए। रियाकारी अर्थात दिखलावे से बचे,क़ुरबानी सिर्फ जानवर की ही नहीं बल्कि बदगुमानी, बुराई, अपनी ज़िद, हसद और उन तल्ख लहजों को भी क़ुरबान करें जिनसे तल्खियाँ जन्म लेती है, और अपने दिल को साफ करें, क़ुरबानी का यही बुनियादी मक़सद है, यही सही त्याग और सही कुर्बानी होगी।

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