कविता: रमज़ान जा रहा है
कवि: नासिर मनेरी
संस्थापक व अध्यक्ष: मनेरी फाउंडेशन, इंडिया
ग़मगीन सब को कर के मेहमान जा रहा है।
कर के उदास माह-ए-गुफरान जा रहा है।।
मस्जिद की रौनकें भी अब खत्म हो रही हैं।
सदमा हज़ार देकर रमज़ान जा रहा है।।
रोजा नमाज़, सहरी, इफ्तारी व तरावीह।
हमराह-ए-हर सआदत मेहमान जा रहा है।।
रहमत थी, मग़फ़िरत थी, और थी नजात-ए-नार।
जिस माह में वो माह-ए-फैज़ान जा रहा है।।
जिस माह में जज़ा भी सत्तर गुना थी ज़्यादा।
अफसोस अब वो माह-ए-गुफरान जा रहा है।।
रब की रज़ा का जिस में मिलता सुनहरा मौक़ा।
हो कर जुदा वो माह-ए-रिज़वान जा रहा है।।
कैसे करे ये मेहमाँ “नासिर मनेरी” रुख़सत।
है हाल तो बुरा अब रमज़ान जा रहा है।।