लेखक: अब्दुल मुस्तफा, झारखण्ड
सलजूक़ी बादशाहों के नामवर वज़ीर निज़ामुल मुल्क ने जब सल्तनत के तूलो अर्द में तालीमी इदारों का जाल बिछा दिया और तालीम के लिये इतनी बड़ी रक़म खर्च की कि तलबा (पढ़ने वाले) किताबों की फराहमी और दूसरे खर्चों से बे नियाज़ हो गये तो सुल्तान मलिक शाह ने फरामया कि वज़ीरे आज़म ने इतना माल इस में खर्च किया है कि इतनी रक़म से जंग के लिये पूरा लश्कर तैय्यार हो सकता है, आखिर इतना मालो ज़र जो आपने इन पर लगाया है तो इस में आप क्या देखते हैं?
वज़ीर निज़ामुल मलिक की आँखों में आँसू आ गये और कहने लगे :
आलिजाह! मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ, अगर नीलाम किया जाऊँ तो 5 दीनार से ज़्यादा बोली ना हो, आप एक नौजवान तुर्क हैं ताहम मुझे उम्मीद नहीं कि 30 दिरहम से ज़्यादा आपकी भी कीमत आये, इस पर भी खुदा ने बादशाह बनाया है। बात ये है कि ममालिक फतह करने के लिये आप जो लश्कर भर्ती करना चाहते हैं उनकी तलवारें ज़्यादा से ज़्यादा 2 ग़ज़ की होंगी और उनके तीर 300 क़दम से ज़्यादा दूर नहीं जा सकेंगे लेकिन मैं इन तालीमी इदारों में जो फौज तैय्यार कर रहा हूँ उनके तीर फर्श से अर्श तक जायेंगे।
(کار آمد تراشے، ص359)
क़ौमों के उरूज और ज़वाल का एक राज़ तालीम में पोशीदा है
तालीम ही वो शय है कि जिसके ज़रिये इंसान को शऊर अता किया जाता है, उसकी फिक्र वसी होती है, उसके ज़हन में पूरी दुनिया बसी होती है अगर्चे वो किसी कोने में बैठा हो।
हमें बहुत ज़्यादा ज़रूरत है कि हम तालीमी निज़ाम पर खास तवज्जोह दें, सिर्फ रस्मी पढ़ाई या सनद नहीं बल्कि ज़िम्मेदारी के साथ इस काम को अंजाम दें और जो इस काम में अपने शबो रोज़ गुज़ार रहे हैं उनकी जहाँ तक हो सके ख़िदमत करें।