कविता

मनक़बत बा मौक़ा उर्से सरकार साहिब उल इक़्तिदार सय्य्दना मुर्शिदना व मौलाना अश्शाह शैख़ मुती उर्रसूल अब्दुल मुक़्तदिर क़ादरी बदायूँनी क़ुद्दुस सिर्राहुल अज़ीज़

फ़ैसल क़ादरी गुन्नौरी

मैं ग़ुलाम ए शैख़ हूँ , हैं मेरे शाहे मुक़्तदिर
रह्ती है हर दम ग़ुलामों पर निगाहे मुक़्तदिर

सर को सज्दे में झुका कर वस्ल ए हक़ को पा लिया
कैसे कोई भूल जाये सज्दा गाहे मुक़्तदिर

उन के क़दमों में झुके शाहों के सर देखे गये
होगी कितनी शान वली फिर कुलाहे मुक़्तदिर

आफ़त ए दुनिया का ख़तरा क्यूँ भला हम को रहे
फ़ज़्ले रब से हम ने पायी है पनाहे मुक़्तदिर

राह ए हक़ काआज भी दुनिया को देती है पता
है वो राहे हक़ यक़ीनन जो है राहे मुक़्तदिर

मेरे वालिद भी इसी दरबार के आशिक़ रहे
मैं ने भी पयी है विर्से में पनाहे मुक़्तदिर

वो दयार ग़ौस के फ़ैसल हुये मसनद नशीं
है दयार ए ग़ौस ए आज़म बारगाहे मुक़्तदिर

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