कविता

ग़ज़ल: नहीं हूँ मैं अब गम उठाने के काबिल

गुनाहों से खुद को बचाने के काबिल
खुदाया बना सर झुकाने के काबिल

मेरी मुफ्लिसि मेरे पीछे पड़ी है
बना इससे पीछा छुड़ाने के काबिल

इलाही ये अब तो मेरी तंगदस्ति
बची ही नहीं आजमाने के काबिल

कोई दाग़ आये ना दामन पे मेरे
हमेशा रहूँ सर उठाने के काबिल

तेरी रहमतों का सहारा है वरना
कहाँ हूँ मैं इतना कमाने के काबिल

दो आलम के खालिक मेरी लाज़ रख ले
नहीं हूँ मैं अब गम उठाने के काबिल

मेरी दिल की दुनियाँ है तारीक रौशन
बचा कुछ नहीं है जलाने के काबिल

अफरोज रौशन किछौछवी

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