कविता

सदाए बदर

यौमे बदर (बदर का दिन) 17 रमज़ानुलमुबारक अहले हक़ के लिए उम्मीदों और हौसलों का अज़ीम निशां

सितम हो लाख मगर खौ़फ़ ओ यास थोड़ी है
भरोसा रब पे है दुनिया से आस थोड़ी है

हम अहले हक़ को है “ला तक़नतू” का परवाना
कहीं शिकश्ता दिली आस पास थोड़ी है

डरेंगे वो जो फ़क़त नाम के मुसलमा हैं
जो सच्चे हैं उन्हें खौफो हिरास थोड़ी है

है मोमिनो के लिए ताजे ‘अनतुमुल अअलोन”
ये क़ौले रब है, गुमान ओ क़्यास थोड़ी है

सितम में जौहरे मोमिन फरोग़ पाते हैं
लिबासे ऐश हमारा लिबास थोड़ी है

नबी के नाम पे मिटने में है बक़ा अपनी
हयाते दह्र हमारी असास थोड़ी है

बड़ी तपिश है मगर फिर भी रोज़ा दारों को
ये प्यास दिल कि तरावट है प्यास थोड़ी है

फिर आज आया है रमज़ां में बद्र का मंज़र
फरीदी हक़ की जमाअत उदास थोड़ी है

कवि: मोहम्मद सलमान रज़ा फरीदी सिद्दीक़ी मिस्बाही, मस्कत ओमान

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