कविता

नात: जहां भी हो वहीं से दो सदा सरकार सुनते हैं

जहां भी हो वहीं से दो सदा सरकार सुनते हैं
सरे आइना सुनते हैं पसे दीवार सुनते हैं

मेरी हर सांस उनकी आहटों के साथ चलती है
मेरे दिल की धड़कनों की भी वह रफ़्तार सुनते हैं

गुनाहगारों दरूदे वालिहाना भेज कर देखो
वह अपने उम्मती का नग़म-ए-किरदार सुनते हैं

मैं सदक़े जाऊं उनकी रहमतल्लिला़लमीनी के
पुकारो चाहे जितनी बार वह हर बार सुनते हैं

मुज़फ्फर जब किसी महफ़िल में उनकी नात पढ़ता है
मेरा ईमान है वह भी मेरे अशआ़र सुनते हैं

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