कविता

ग़ज़ल: जो समुंदरों के रफ़ीक़ थे उन्हें तिश्नगी ने हरा दिया

कभी इल्म ने उसे मात दी कभी आगही ने हरा दिया
जिसे तीरगी न हरा सकी उसे रौशनी ने हरा दिया

कभी ख़ुश्क उन के न लब हुए रही जिन की क़तरों से दोस्ती
जो समुंदरों के रफ़ीक़ थे उन्हें तिश्नगी ने हरा दिया

जिन्हें बेबसी न हरा सकी उन्हें फिर न कोई हरा सका
जो ज़रूरतों के ग़ुलाम थे उन्हें हर किसी ने हरा दिया

हमें सर-बुलंदी अता हुई जहाँ जिस महाज़ पे डट गए
मरे रोज़ जिस की तलब में हम उसी ज़िंदगी ने हरा दिया

न है इल्म-ओ-फ़न की तलब तुम्हें न तरक़्क़ियों का जुनून है
जो तुम्हारा तर्ज़-ए-हयात है तुम्हें बस उसी ने हरा दिया

रह-ए-इश्क़ में जो फ़ना हुए उन्हें जावेदानी अता हुई
जो असीर-ए-हुस्न-ए-हयात थे उन्हें बे-हिसी ने हरा दिया

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