मौलवी अहमदउल्ला शाह की पहचान 1857 के इंक़लाब के दौरान एक फौलादी शेर के रूप में होती थी। 1857 का इंकलाब कामयाब तो नहीं हो सका लेकिन इस इंकलाब ने हर एक हिंदुस्तानी के दिल में आज़ादी का जो बीज बोया उसी वजह से 1947 में आज़ादी मिल सकी। लेकिन आज 1857 का वह शेर जिसने आज़ादी की दीवानगी में अपनी जान की क़ुरबानी दे दी तारिख के पन्नों से शायद कहीं गुम हो गया है। ये 1857 के इन्क़लाब में शुमाली हिंदुस्तान की एक अहम् शख्सीयत थे। अहमदुल्ला का परिवार हरदोई ज़िले के गोपामऊ गावं में रहा करता था। उनके वालिद गुलाम हुसैन खान हैदर अली की फौज में एक सीनियर ऑफिसर थे।
मौलवी अहमदउल्ला शाह का मानना था कि सशस्त्र विद्रोह की कामयाबी के लिए, अवाम का सहयोग बहुत ज़रूरी है। उन्होंने दिल्ली, मेरठ, पटना, कलकत्ता और बहुत सारी जगहों का सफर तय किया और आजादी के बीज बोए। मौलवी और फजल-ए-हक खैराबादी ने भी अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद का ऐलान कर दिया। उन्होंने 1857 में बगावत के आगाज़ से पहले भी अंग्रेजो के खिलाफ जिहाद की ज़रूरत के लिए फतेह इस्लाम नामी एक किताब लिखी थी।
जी बी मॉलसन के मुताबिक, “इस में कोई शक नहीं है कि 1857 की बगावत के साजिश के पीछे मौलवी का ज़ेहन और कोशिश अहम् थी। मुहीम के दौरान रोटी की तकसीम, चपाती तहरीक दरअसल इन्ही की ज़ेहनी सोच थी।

जी बी मॉलसन के मुताबिक जब मौलवी पटना में थे तभी ब्रिटिश अफसरों ने ख़ुफ़िया मालूमात के ज़रिये उन्हें पुलिस की मदद से उनके घर से ही गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद उन को ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत और साजिश के इलज़ाम में मौत की सजा सुना दी गयी। बाद में इस सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया। लेकिन बगावत फैलने के बाद बागी सिपाहियों ने जेल को तोड़ कर उन्हें आज़ाद करा लिया।
इसके बाद अंग्रेज कभी उन्हें ज़िंदा नहीं पकड़ सके थे। अंग्रेजों ने उन्हे पकड़ने की कई साजिशें रची लेकिन सभी में नाकामयाब होने के बाद उनके सर की कीमत रख दी गयी 50,000 रूपये। इसी कीमत के लालच में शाहजहांपुर जिले की पुवायां रियासत के विश्वासघाती राजा जगन्नाथ सिंह के भाई बलदेव सिंह ने 15 जून, 1858 को तब धोखे से गोली चलाकर मौलवी की जान ले ली, जब वो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में मदद मांगने उसके किले पर गए थे।
उसने मौलवी का सिर कटवाकर रूमाल में लिपटवाया और शाहजहांपुर के कलेक्टर के हवाले कर के उससे कीमत वसूल ली. कलेक्टर ने उस सिर को शाहजहांपुर कोतवाली के गेट पर लटकाकर प्रदर्शित किया ताकि जो लोग उसे देखें, वो आगे से सिर उठाने की जुर्रत न करें।
लेकिन कुछ वतनपरस्तों ने अपनी जान पर खेलकर मौलवी का सर वंहा से उतार लिया। और पास के लोधीपुर गांव के एक छोर पर पुरे अक़ीदत और एहतराम के साथ दफ़न कर दिया। वहीं दूर खेतों के बीच आज भी मौलवी की मजार मौजूद है। जंहा एक अजब सी ख़ामोशी है। एक ऐसा सिपाही जिसने मुल्क की आज़ादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी शायद आज वो तारीख के पन्नों में कहीं गुम हो गया है