एक वक़्त था जब बुर्क़ा या अबाया पर्दा और हया की अलामत कहलाता था !!
फ़िर बुर्के ने सफ़र तय किया और फिटिंग की तंग गलियों व तारीक गलियों से होता हुआ जिस्म के साथ ऐसा चिपकता गया कि अब बुर्के को भी बुर्के की ज़रूरत पड़ गई है !!
और अब दौर ए जदीद का बुर्क़ा या अबाया बेहयाई का सिम्बल बन चुका है !!
फ़िर शलवार और शलवार से ट्राउज़र, फ़िर ट्राउज़र से स्किन टाइट पजामे जो आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर को सरक रहे हैं !!
सर पे चादर से दुपट्टा जो सर से बिल्कुल ग़ायब !!
अब कमीज़ का गला है जो आगे और पीछे से नीचे की तरफ़ सरक रहा है !!
ये निशानदेही है कि तरबियत गाह या दर्सगाह अब माँ की गोद नहीं बल्कि 32″ का tv स्क्रीन और 6″ की मोबाइल स्क्रीन है !!
तरक़्क़ी का सफ़र अभी मज़ीद जारी है जो मुख्तसर और तंग लिबास से निकलकर बेलिबासी की तरफ रवां-दवां है !!
अल्लाह ख़ैर करे…
कल जिन्हें छू नहीं सकती थी नज़र
आज वह रौनक-ए-बाज़ार नज़र आती हैं