ग़ुलाम मुस्तफा नईमी
रौशन मुस्तक़बिल दिल्ली
आजकल मुसलमानों को परेशान करने के लिए “मकान बिकाऊ है” का फार्मूला बड़ा कारगर नुस्खा बन गया है जिस इलाके़ में मुसलमानों को परेशान करना हो वहां के ग़ैर मुस्लिम अपने घरों पर ‘मकान बिकाऊ है’ लिख कर बैठ जाते हैं। बाकी का काम गोदी मीडिया कर देता है इसके बाद शासन और प्रशासन मिलकर इस तरह शिकंजा कसते हैं कि मुसलमान खुद अपना घर बार बेचने पर मजबूर हो जाते हैं।
__’मकान बिकाऊ है’ प्रोपगंडे और षड्यंत्र की शुरुआत 2016 में कैराना जिला शामली यूपी से हुई थी। उस वक्त बीजेपी लीडर ‘हुकुम सिंह’ वहां के एमपी हुआ करते थे। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह इल्जाम लगाया था कि मुसलमानों की दबंगई और अत्याचारों की वजह से हिंदू समाज के लोग अपना घर मकान बेचना चाहते हैं। हालांकि पुलिस, मीडिया और मानवाधिकार आयोग की तहकीकात और तफ्तीश में यह आरोप ग़लत साबित हुआ। इस मुद्दे की आड़ भाजपा चुनावी फायदा उठाना चाहती थी मगर इलेक्शन में हार जाने की वजह से बीजेपी ने भी इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
_कैराना में भले ही यह मुद्दा नाकाम हो गया मगर कट्टरपंथियों के हाथ एक कारगर नुस्खा लग चुका था। कैराना के बाद शामली बंगाल के आसनसोल, डायमंड हार्बर, हरियाणा के मेवात और दिल्ली के सीलमपुर में भी यही दास्तान दोहराई गई और तो और पिछले साल मेरठ के एक मोहल्ले प्रहलादनगर में भी यही प्रोपगंडा किया गया हालांकि किसी एक जगह भी यह इल्जाम सच साबित नहीं हो सका। लेकिन उसके बावजूद कट्टरपंथी संगठन अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। ताजा मामला अलीगढ़ के नूरपुर और रामपुर के टांडा का है जहां मामूली बातों का बतंगड़ बनाते हुए कुछ लोगों ने अपने घरों पर ‘मकान बिकाऊ है’ लिखकर मामले को सांप्रदायिक बना दिया।
🔹26 मई को अलीगढ़ के टप्पल थाना क्षेत्र के नूरपुर गांव में अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति के बेटे की बारात निकल रही थी बारात पूरे गाजे-बाजे के साथ थी जब यह बारात एक मस्जिद के सामने पहुंची तो मुस्लिम समाज के कुछ लोगों ने बारात को मस्जिद के सामने से जल्दी ले जाने या बैंड बाजा बंद कर लेने का अनुरोध किया इस जरा सी बात पर बाराती हत्थे से उखड़ गए।इसी तकरार में बारातियों और स्थानीय लोगों में हाथापाई हो गई। बस इसी बात को लेकर हिंदू समुदाय के लोगों ने अपने घरों पर ‘मकान बिकाऊ है’ लिखकर पूरे मामले को सांप्रदायिक एंगल दे दिया और इस तरह मुसलमानों को गुंडा और खुद को पीड़ित बनाकर विक्टिम कार्ड खेल रहे हैं।
🔹 28 मई को रामपुर के कस्बा टांडा मोहल्ला टंडोला में कैरम बोर्ड खेलने को लेकर कुछ मुस्लिम और गैर मुस्लिम युवाओं में झगड़ा हो गया पुलिस ने शांतिभंग में 3 लोगों का चालान कर दिया मगर हिंदू समुदाय के लोग इतने पर भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने कुछ कट्टरपंथी संगठनों के बहकावे में आकर अपने घरों पर ‘मकान बिकाऊ है’ का बोर्ड लगा दिया इस तरह एक मामूली से मामले को हिंदू-मुस्लिम का सांप्रदायिक रंग दे दिया गया अब यह लोग मीडिया के सामने आकर मुसलमानों की दबंगई और अत्याचारों का रोना रोकर खुद को पीड़ित और मुसलमानों को अत्याचारी साबित करने की कोशिश कर रहे हैं।
मौजूदा दोनों मामलात में अनुसूचित और दलित जाति के लोग शामिल हैं जो खुशी-खुशी उन कट्टरपंथियों के हाथों में खेल रहे हैं जिन्होंने आज तक उन्हें समानता का अधिकार तक नहीं दिया अफसोस की बात यह है कि अभी तक कोई दलित संगठन आगे नहीं आया है दलित समुदाय के जिम्मेदारों को चाहिए कि वह आगे आकर लोगों को समझाएं ताकि सामाजिक न्याय की मुहिम कमजोर ना पड़े।
वास्तविकता क्या है?
जिन इलाकों में मुसलमानों की संख्या 20 फीसद से कम होती है वहां के मुसलमान पूरी तरह से बहुसंख्यक के रहमो करम पर होते हैं। बहुसंख्यकों की मर्जी के बगैर वह मदरसा बना सकते हैं न मस्जिद, और तो और उन्हें कुर्बानी करने की इजाजत भी नहीं होती कुर्बानी करने के लिए उन्हें दूसरे गांव जाना पड़ता है। आबादी का अनुपात अगर दस प्रतिशत से नीचे आ जाए तब तो मुसलमान अपने घर में किसी तरह की मजहबी महफिल भी नहीं कर पाते है और ना ही अपनी मर्जी से गोश्त पका सकते हैं।
हां जिन इलाकों में मुसलमानों की आबादी 30 फीसद या उससे ऊपर होती है वहां मुसलमान जरूर कुछ हद तक इस्लामी सभ्यता के हिसाब से अपना जीवन गुजारते हैं। इसलिए अब कट्टरपंथी संगठन उन इलाकों के खिलाफ ‘मकान बिकाऊ है’ जैसे षडयंत्र रच रहे हैं। हालांकि अभी तक इस सारे मामलात गलत साबित हुए हैं कोई एक मामला भी सही साबित नहीं हो सका इसके बावजूद कट्टरपंथी पूरे देश में यह खेल खेल रहे हैं। इसके पीछे दो मुख्य कारण हैं:
1-मुस्लिम बहुसंख्यक इलाकों में मुसलमान राजनीतिक और आर्थिक तौर पर कुछ बेहतर पोजीशन में होते हैं इसलिए इसलिए कट्टरपंथी तत्व उन इलाकों में ऐसे इश्यूज उठाकर मुसलमानों को डाउन करना और अपनी पार्टियों में बड़ा नाम और पद हासिल करना चाहते हैं।
2- दूसरा अहम कारण वह मानसिकता है जो किसी भी इलाके में मुसलमानों को खुशहाल नहीं देख सकती। इसलिए मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी और बस्तियां उनकी निगाहों में कांटों की तरह खटकती है। क्योंकि जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं वहां तो वह बहुसंख्यक की मर्जी के बगैर मस्जिद मदरसा तक नहीं बना सकते लेकिन जिन इलाकों में मुसलमान ठीक-ठाक तादाद में है अब वहां भी ‘मकान बिकाऊ है’ जैसे प्रोपगंडे शुरू किए जा रहे हैं ताकि मुसलमानों को उन शहरों में भी चैन से ना रहने दिया जाए।
इस खेल में गोदी मीडिया कट्टरपंथियों का पूरा साथ देता है मीडिया की मानें तो ऐसा लगता है कि मुसलमान इस देश में इतने दबंग और ताक़तवर हैं जिनके सामने बहुसंख्यक समाज सांस लेने से भी डरता है। हालांकि यह बात अपने आप में किसी लतीफे से कम नहीं है क्योंकि शासन प्रशासन मीडिया और तमाम संस्थानों पर हिंदू समाज के लोगों का ही दबदबा और प्रभाव है। मुसलमान तो यहां अपने वजूद और दो वक्त की रोटी के लिए ही मेहनत मशक्कत कर रहे हैं।वो भला किसी को धमकाने या डराने की ताकत कहां से लाएंगे?
मगर मीडिया ने इस देश के लोगों के दिलो दिमाग पर इस तरह कब्जा कर लिया है वह सोचने समझने की क्षमता खो चुके हैं। वरना वह इतनी सी बात नहीं समझ पाते कि मुसलमान इस देश में सिर्फ 15 फीसद हैं, आर्थिक शैक्षिक और राजनीतिक ऐतबार से मुल्क की सबसे पिछड़ी हुई कौम हैं, आटे में नमक के बराबर हैं। जिस समुदाय की गिनती आटे में नमक के बराबर हो वह भला बहुसंख्यक समाज को किस तरह डरा सकता है? मगर जब अपनी अक्ल दूसरों के कब्जे में हो तो इंसान कुछ भी समझ सकता है ऐसा ही इस देश के बहुसंख्यक समाज के साथ हो रहा है। मीडिया के कहने से दिन को रात और रात को दिन समझ रहे हैं और शांति भरे वातावरण में नफरत का ज़हर घोल कर देश को कमज़ोर कर रहे हैं।