गांधी के नाम पर बनी संस्था की पत्रिका में गांधी की हत्या के षड्यंत्र के प्रमुख आरोपी और बाद में बरी हुए विनायक दामोदर सावरकर पर विशेषांक की वजह से सावरकर फिर चर्चा मे हैं। अंग्रेज़ों से माफी माँगने वाले स्वघोषित ‘वीर’ सावरकर मौजूदा हिंदुत्ववादियों के पुरखे हैं और जब उनसे प्रेरणा लेने वाले लोग सत्ता में हैं तो गांधी के नाम पर बनी संस्था कल को गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे पर भी विशेषांक निकाल दे तो आज के दौर में किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए । हमें यह मालूम होना चाहिए कि सावरकर ने स्वयं ही खुद को वीर का ख़िताब दिया था। चित्रगुप्त के छद्म नाम से सावरकर ने खुद अपनी जीवनी लिखी और शीर्षक में वीर का इस्तेमाल किया।
उन्हीं सावरकर के बारे में गांधी स्मृति दर्शन समिति की पत्रिका के विशेषांक पर एक चर्चा में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के परपोते तुषार गांधी ने बहुत संयत लहजे में, तार्किक तरीक़े से वस्तुपरकता के साथ अपनी बात रखी और दो टूक कहा कि अंग्रेज़ों से माफ़ी मांग कर , उनसे पेंशन लेकर जीने वाले सावरकर और महात्मा गांधी की तुलना स्वतंत्रता संग्राम के तमाम सेनानियों का अपमान है। उन्होंने कहा सावरकर का व्यक्तित्व खोखला था। वह शुरुआत में क्रांतिकारी थे लेकिन बाद में अंग्रेज़ों के समर्थक , आज़ादी की लड़ाई में ग़द्दार बन गये थे। तुषार गांधी ने यह भी कहा कि संघ परिवार की विडंबना यह है कि सावरकर को सम्मान देने के लिए भी गांधी का ही सहारा लेना पड़ता है, स्वतंत्र रूप से यह संभव ही नहीं है। तुषार गांधी ने यह भी कहा कि वह सावरकर के महिमामंडन से जुड़ी तमाम विषय वस्तु और सामग्री से असहमति के बावजूद पत्रिका की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार के समर्थन में हैं ।
इस चर्चा में महात्मा गांधी की हत्या के पीछे सुरक्षा में चूक और जाँच को लेकर नेहरू को लपेटने की कोशिश और सावरकर पर इंदिरा गांधी का जिक्र करके आज की कांग्रेस को घेरने की कोशिश बहुत हुई । शायद जानबूझकर यह भूलना सुविधाजनक लगा हो कि गांधी की हत्या के बाद जिस शख़्स पर सबसे ज्यादा उँगलियाँ उठी थीं, वे थे सरदार पटेल, आजकल जिन्हें वर्तमान दक्षिणपंथी राजनीति अपने वैचारिक पितृपुरुष की तरह प्रस्तुत करती है और जिनकी सबसे ऊँची प्रतिमा बनाकर उनके आगे औरों को, ख़ासकर नेहरू को कमतर साबित करने की लगातार कोशिश की जाती रही है ।
जब गांधी की हत्या हुई तब सरदार पटेल नये नये आज़ाद हुए भारत के गृहमंत्री थे। भारत विभाजन से पहले के कुछ वर्षों और आज़ादी के बाद के भारत में गांधी की हत्या से लेकर स्वयं पटेल की मृत्यु का कालखंड पटेल के जीवन का सबसे चर्चित और विवादित समय रहा ।
पटेल गांधी के सबसे नज़दीकी और भरोसेमंद लोगों मे थे। नेहरू के मुकाबले पटेल और गांधी की उम्र का अंतर कम था। स्पष्टवादी सरदार पटेल और गांधी के बीच संवाद का स्तर नेहरू और गांधी के बीच होने वाले संवाद से अक्सर अलग रहता था। गांधी के इतने आत्मीय व्यक्ति के देश का गृहमंत्री रहते हुए उनकी हत्या हो जाना पटेल के जीवन के अंतिम दौर में एक ऐसा दंश था जिसकी असह्य पीड़ा भोगते हुए वे इस दुनिया से चले गए। गांधी की हत्या के पीछे सुरक्षा चूक के लिए पटेल पर उँगली उठाने वालों में जयप्रकाश नारायण भी थे। पटेल कांग्रेस में दक्षिणपंथी खेमे के अग्रणी नेता थे और गांधी के सनातनी हिंदू के मुकाबले कट्टर हिंदू संगठनों के प्रति नरमी भी रखते थे लेकिन आज उनका नाम जपने की आड़ में कांग्रेस पर हमला करते हुए सांप्रदायिक राजनीति को तर्कसंगत ठहराने वालों की तरह हिंदू राष्ट्र का कोई सपना उन्होंने कभी नहीं देखा था। उनका राष्ट्रवाद हिंदुओं की पक्षधरता के बावजूद कभी हिंदू भारत के समर्थन में नहीं था। हालांकि मुसलमानों से दो टूक लहजे में सख़्त बात कहने में उन्होंने कभी परहेज़ भी नहीं किया । गांधी की हत्या से 24 दिन पहले 6 जनवरी 1948 को लखनऊ में पटेल के भाषण में आरएसएस और हिंदू महासभा के प्रति नरमी और हिंदुस्तान में रहने वाले मुसलमानों से वफ़ादारी साबित करने की बात स्पष्ट थी। पटेल ने उस भाषण में मुसलमानों से कहा था कि वे जिस नाव में बैठे हैं, उसी का हित सोचें क्योंकि उन्हें भी उसी नाव में सफ़र करना है।
गांधी की नज़र हर बात पर रहती थी।विभाजन के बाद मिली आज़ादी की मुश्किलों और सांप्रदायिक तनाव के उस भयंकर दौर में वे अपने दोनों पट्टशिष्यों नेहरू और पटेल की हर हरकत पर ध्यान देते थे। माहौल ही ऐसा था। सरदार के भाषण के बाद गांधी ने जैसे मुसलमानों को आश्वस्त करते हुए 13 जनवरी 1948 की अपनी प्रार्थना सभा में कहा था- सरदार की जीभ ऐसी है जिसमें काँटा है, दिल ऐसा नहीं है।
जब से बीजेपी की अगुआई वाली सरकार केंद्र में आई है, तबसे पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता जब भी बँटवारे का जिक्र करते हैं, कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करते हुए सीधे नेहरू पर निशाना साधते हैं, पटेल का नाम नहीं लेते। जबकि पटेल सारी जिंदगी कांग्रेस के नेता रहे और बंटवारे के फ़ैसले में बराबर के हिस्सेदार थे। आज़ादी से महज चार दिन पहले 11 अगस्त 1947 को दिल्ली के रामलीला मैदान में पटेल ने साफ कहा था कि साथ रहकर लड़ते रहने से अलग हो जाना अच्छा है।
गांधी की हत्या के बाद पटेल ने नेहरू को लिखे एक पत्र में सावरकर को प्रमुख षड्यंत्रकारी बताया था। पटेल ने लिखा था- सावरकर के सीधे मार्गदर्शन में हिंदू महासभा के एक कट्टर वर्ग ने यह षड्यंत्र रचा, उसे आगे बढ़ाया और अंतिम परिणाम तक पहुँचाया।
सावरकर ने जिन्ना से भी पहले बँटवारे का द्विराष्ट्र सिद्धांत यानी टू नेशन थ्योरी दी थी।
आज़ादी के अमृत महोत्सव और विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के बीच यह सब जान लेना भी ज़रूरी है। संस्कृति मंत्रालय और खबरिया चैनल तो बताने से रहे।
लेख: अमिताभ श्रीवास्तव