कविता
ग़ज़ल: मंज़ूर, दर्दे- इश्क़ का दिल पे असर तो हो

मंज़ूर, दर्दे- इश्क़ का दिल पे असर तो हो
लेकिन इलाज के लिए इक चारागर तो हो
मरने का क्या है मैं अभी मर सकता हूँ, मगर
कोई तो सोज़ ख़्वां हो कोई नोहा गर तो हो
मैं तेरे दिल से कैसे निकल जाऊँ ये बता
रहने को मेरे पास कोई और घर तो हो
कर दूँगा अपने प्यार का इज़हार उस से मैं
लेकिन ज़रा सी उस की तवज्जो इधर तो हो
वो ख़ुद को बेच देगा यक़ीनन मेरे लिए
मेरी परेशां हाली की उस को ख़बर तो हो
तब ही तो मअना ख़ेज़ बनेगी सफ़र की धूप
राहों में सायादार कोई इक शजर तो हो
दुनिया का कोई खौफ़ न रह जाएगा तुम्हें
पैदा दिलों में ख़ालिक़े- अकबर का डर तो हो
तब तो करूँ मैं इज्ज़ के पहलू पे उस से बात
वो रिफ़अते- ग़ुरूरो- अना से उतर तो हो
ज़की तारिक़ बाराबंकवी
सआदतगंज, बाराबंकी, यूपी
लाजबाब ज़ी 🌹🌹