लेखक: जावेद शाह खजराना
हजरत अबु हुरैरा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु ने कहा कि रसूले करीम सल्लाहू वअलैयवसल्लम ने फ़रमाया कि…. “जो शख़्स सच्चे दिल से और सही अक़ीदे के साथ रमज़ान में क़ियाम यानि तरावीह पढ़ेगा तो अल्लाह उसके अगले गुनाह बख़्श देगा।”
हदीस शरीफ़ से ये तो साबित हो गया कि तरावीह पढ़ना सुन्नत है। लेकिन प्यारे नबी के वक्त में नमाजी तरावीह को तन्हा अदा करते थे यानि जमात के साथ नहीं पढ़ते थे। प्यारे नबी के बाद पहले ख़लीफ़ा हजरत अबु बकर सिद्दीक़ी के दौर तक यही मामूल रहा।
फिर हजरत उमर के दौर में जब इस्लामी हुकूमत किले पर किले फतह कर रही थी और सारी दुनिया इस्लाम के रंग में रंगने लगी। नए लोग इस्लाम में दाखिल होने लगे। तब तरावीह को तन्हाई में पढ़ने में ये दुश्वारी आने लगी कि नए मुसलमानों को क़ुरआन हिफ़्ज़ नहीं था।
जबकी तरावीह में क़ुरआन की तिलावत ही की जाती है।तब हजरत उमर रज़िअल्लाह तआला अन्हु ने जमाअत से तरावीह की शुरुआत करवाई।जिसमें क़ुरआन हाफ़िज़ तिलावते क़ुरआन करता है और बाकी नमाजी उसे सुनकर सवाब के हकदार बनते है।
तराविह में 20 रकात होती हैं।2 -2 रकात सुन्नत पढ़ने के बाद हर चौथी रकाअत में हाफ़िज़ साहब और नमाजी आराम यानि ठहराव करते है और तरावीह की दुआ बुलंद आवाज में पढ़ते है। नमाजियों का इस तरह बैठना या आराम करना अरबी भाषा में तरावीह कहलाता है।
चूंकि तरावीह में क़ुरआन की सूरतों की तिलावत होती है जो काफी लंबी रहती है। इसलिए हर 4 रकाअत नमाज के दरमियान नमाजी आराम की गरज से ठहरते हैं।
तरावीह अरबी के शब्द तरविह (ترویحہ) का बहुवचन है। इसका मतलब आराम और ठहरना होता है। ये नमाज मर्द मस्जिद या कही भी जमा होकर और महिलाएं अकेले घर पर पढ़ती हैं।
सुन्नी मुसलमानों में अहले हदीस जमात वाले तरावीह की नमाज़ मैं 8 रकात पढ़ते हैं और दूसरी विचार धारा वाले जैसे मक्का-मदीना सहित तमाम हिंदुस्तान में ज्यादातर 20 रकात पढ़ते हैं।
तरावीह की नमाज़ हाफ़िज़-अल-क़ुरआन यानि जिसने पूरा क़ुरआन मुंह जुबानी याद किया हुआ हो पढ़ाता है। एक हाफ़िज़ नमाज़ पढ़ने वालों में भी होता है जो पढ़ाने वाले की भूल को बताता है। इसे लूकमा देना भी कहते है।
लगभग सभी मस्जिदों में मुसलमान पूरे रमज़ान महीने में तरावीह की नमाज़ पढ़ते हैं। रमज़ान में एक बार पूरा क़ुरआन सुनना ज़रूरी समझते हैं क्योंकि क़ुरआन सुनने पर भी अल्लाह रब्बुल आलमीन नेकियाँ आता फरमाता है। एक क़ुरआन चाँद रात से लेकर 27वी रमज़ान तक पढ़कर उसी रात में मुक़म्मल कर लिया जाता है क्योंकि क़ुरआन इसी रात को नाज़िल हुआ था।
जिनके पास काम की मशरूफियत की वजह से कम वक्त रहता है वो 3 दिन का शबीना (रातों) में, 6 रातों या 10 रातों के शाबिने में भी पूरा क़ुरआन पढ़कर खत्म कर लेते है।
अल्लाह मुझे और आपको लिखने-पढ़ने से ज्यादा अमल करने की नेक तौफीक अता फ़रमाए।