कविता

ग़ज़ल: वो हुस्न अपनी ग़ज़ल के रचाव में रखना

ज़की तारिक़ बाराबंकवी
सआदतगंज,बाराबंकी,उत्तर प्रदेश

लगाए दिल को किसी के लगाव में रखना
फ़क़त है ख़ुद को हमेशा तनाव में रखना

बड़ा अजब है ज़माना है कहता इश्क़ इसे
किसी के दिल से दिल अपना मिलाव में रखना

जो सब को खींच ले दीवाना कर के अपनी तरफ़
वो हुस्न अपनी ग़ज़ल के रचाव में रखना

है मेरा मश्विरा थोड़ी सी नर्मी ऐ हमदम
तुम अपनी जिन्से-मोहब्बत के भाव में रखना

पता है जिस में है अख़लाक़ क़ीमती है बहुत
मगर ये पलड़ा हमेशा झुकाव में रखना

न झूमर और न गुलदान की ज़रूरत है
मुझे तो उस को है घर के सजाव में रखना

इस अपने हुस्न के जाहो-जलाल के दम पर
तुम्हें तो सिर्फ़ है आता दबाव में रखना

तू जिस को फ़ैसल-ए-तर्के-क़ुर्ब कहता है
ये तो है सैले-लहू को जमाव में रखना

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