भारत, पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, सीरिया, ईजिप्ट, लेबनान, अमेरिका, दक्षिण अफ़्रीका, कुवैत, क़तर, दुबई, ओमान और फ़िलिस्तीन में मैं दर्जनों मस्जिदों में गया हूँ. कभी किसी ने नाम भी नहीं पूछा. कई बार तो जब लोग नमाज़ पढ़ रहे होते हैं और मैं साइड में बैठा होता हूँ तब भी किसी ने नहीं पूछा कि नमाज़ क्यों नहीं पढ़ रहे हो. मस्जिद में लेट कर आराम भी किया है. सोया भी हूँ. खाना भी खाया है. कई इस्लामिक सेंटर भी गया हूँ. वहाँ महिलाओं के लिए, बच्चों के लिए, बूढ़ों के लिए कई सुविधाएँ और व्यवस्थाएँ होती हैं।
अभी पाँच दिन पहले पिछले सैटर्डे को मैं अमेरिकी राज्य वर्मांट के बर्लिंगटन शहर के इस्लामिक सेंटर गया था. वहाँ सबको मालूम था मैं हिंदू हूँ. बेहद मोहब्बत से लोग मिले. कई लोगों को मालूम था कि मैं शाकाहारी हूँ तो मेरे लिए खाने का इंतज़ाम ध्यान रख कर किया. मस्जिद में हर राष्ट्रीयता के लोग थे: अरब, अफ़्रीकी, गोरे, भारतीय, पाकिस्तानी, तुर्की. सब आपस में मस्त घुलेमिले थे. भारत में बहुत मस्जिदों में घूमा हूँ. कभी किसी ने पूछा तक नहीं कि कौन हो कहाँ से आए हो।
एक बार अमेरिका के टैक्सस राज्य में एक मस्जिद में मैं तक़रीर कर रहा था. हॉल में दो सौ लोग रहे होंगे. अचानक से पीछे से एक आवाज़ आई कि ब्रदर मैं आपको दावत देता हूँ कि आप इस्लाम क़ुबूल कर लें. फिर क्या था. उसके आस पास के मुसलमानों ने झट उसको पकड़ कर मस्जिद से बाहर कर दिया. वो मस्जिद दरअसल टैक्सस के एक बहुत बड़े इस्लामिक सेंटर में है. घटना होते ही लाइन लगा कर मुझसे कई मुसलमान उस भाई की हरकत के लिए माफ़ी माँगने लगे. दस मिनट में मुझे एक साहब ने कहा कि आपसे मरकज़ (सेंटर) के लीडर मिलना चाहते हैं. मुझे एक कांफ्रेंस रूम में ले जाया गया. वहाँ दस-बारह लोग बैठे थे. वो सेंटर के ऑफ़िशियल थे. सब मुझसे माफ़ी माँगने लगे. उन्होंने कहा कि हम आपको ये बताना चाहते हैं कि मुसलमान होने का ये मतलब नहीं है कि हम अपने गेस्ट से ऐसे बात करें जैसे उस भाई ने आपसे किया।
मैंने कहा भाई लोग आप लोग थोड़ा ठंड रखें. उस बेचारे भाई ने कुछ बुरा नहीं किया. मैंने कहा कि कलमा पढ़ूँ न पढ़ूँ मैं तो मानता हूँ कि मैं आधा मुसलमान तो हूँ ही क्योंकि मुहम्मद साहब को मैं पैगंबर मानता हूँ. और क़ुरान की जितनी बातें समझ आती हैं उन उसूलों पर चलने की कोशिश कर पाऊँ न पाऊँ उनके बारे में सोचता तो रहता ही हूँ।
मैं पूरे अमेरिका में घूमता हूँ. मुझसे सबसे अच्छा लगता है शिकागो के Firoz Vohra भाई के इस्लामिक मरकज़ में जाकर रुकना. फ़िरोज़ भाई यारों के यार हैं, भाई से बढ़ कर भाई हैं. अगस्त के महीने में मैं वहाँ तीन रात रुका. जिस दिन पहुँचा उसी दिन मुझे कोविड हो गया. उस दौरान मरकज़ में सौ से ज़्यादा लोग टिके थे. सब मुसलमान थे. लेकिन फ़िरोज़ भाई ने जितनी मेरी सेवा की उतनी किसी और की नहीं की. दिन रात आकर मेरा बुख़ार नापते थे, दर्द की दवाई देते थे. खाना लाते थे. मैंने बोला फ़िरोज़ भाई दूर रहिए कोविड हो जाएगा. बोले अजित भाई आपके साथ रह कर मुझे कुछ नहीं होगा, और कहते ही गले लगा लिया.
मुसलमान दोस्तों से मेरा हंसी-मज़ाक भी ख़ूब चलता है. कुछ दिनों पहले एक दूसरे शहर गया था. वहाँ कुछ मुसलमान दोस्तों के साथ मस्जिद गया. वो लोग नमाज़ पढ़ने लगे. एक दोस्त ने चुटकी ली: अजित भाई नमाज़ पढ़ लीजिए. मैंने कहा आप पढ़ो मैं तो सफ़र में हूँ. हम सब ठहाका लगा कर हंसने लगे. ग़ैर-जानकार को बता दूँ इस्लाम में सफ़र के दौरान नमाज़ में रियायत है.
मैं भारत में कई मदरसों में गया हूँ. आज तक किसी मदरसे में मुझे आतंकवाद तो छोड़ दीजिए छोटी-मोटी हिंसा की बात तक नहीं सुनाई दी. बल्कि हर मदरसे में दीनी क्लास में ये बताते हुए सुना कि अच्छा इंसान कैसे बना जाए.
सभी हिंदू भाई-बहन से मेरा आग्रह है कि मुसलमानों के प्रति दुराग्रह न रखें. उनसे मिलें. प्यार बाँटने से प्यार मिलता है.
लेख: अजित शाही, वरिष्ठ पत्रकार