धार्मिक

हमारे जलसों का हाल

मेरे भाईयों !

जलसा कराने के लिए जिन चीज़ों की ज़रूरत होती है अगर उन चीज़ों पर ग़ौर करें तो अंदाज़ा होगा कि उसमें मुख़्तलिफ ख़्यालात के लोग शामिल होते हैं जैसे:

(1) नक़ीबे जलसा (एनाउंसर)
(2) मुक़र्रिरीन
(3) शायर
(4) सामेईन (सुनने वाले)
(5) स्टेज
(6) माइक
(7) और सामेईन के बैठने का इंतिजाम

ये वो चीज़ें हैं जो जलसे के लिए ज़रुरी हैं, आप इसी से उसके ख़र्च का भी अंदाजा लगाइए, तो वाक़ई एहसास होगा कि हर जलसे में लाखों रूपए खर्च हो जाते हैं और उसका हासिल तफरीहे तबा के और कुछ नहीं होता, शायद ही कोई जलसा ऐसा होता हो जिसमें मुक़र्रिरीन मुख़्लिस हों, शोअ्रा व नात ख़्वां हुब्बे रसूल में मस्त हों और सामेईन सुनने में रज़ाए इलाही के जज़्बे से सरशार हो, वो इस नीयत से जलसे में शिरकत ही नहीं करते कि उससे हमारे इल्म में इज़ाफ़ा होगा और हम यहां से कुछ दीन की बातें सीख कर उठेंगे, इल्ला माशा अल्लाह ।

जलसों में नक़ीबों (एनाउंसर) का होना अब लाज़मी हो गया है, ये बेचारी वो क़ौम है जो दूसरों के लिए झूठ बोल बोलकर अपने लिए जहन्नम वाजिब करती है, मौलवी को अल्लामा, मुहल्ले के ख़तीब को ख़तीबुल हिन्द, मीज़ान नहीं पढ़ा सकने वालों को मुनाज़िरे आज़म, ज़िले में भी ना जानने वालों को फातहे अमेरिका व यूरोप, ऐसे फर्राटे से बोलते हैं जैसे ये सारी खूबियां उनकी चश्म दीद है, पांच छः घंटों के जलसों में तीन घंटा उनके झूठ बोलने के लिए वक़्फ होना चाहिए।

नात ख़्वानो को लिजीए तो उनमें शोअ्रा कम और गवय्ये ज़्यादा हैं, गानों की तर्ज़ में नातें पढ़ना, क़व्वालों की नक़्क़ाली करना, और पब्लिक को ख़ुश करने के लिए नातें पढ़ना भला कौन सा तरीक़ा ए अदब है, ? और आदाबे नात से उनका क्या ताल्लुक है, पहले तक़रीरों के दरमियान एक नाते पाक पढ़ी जाती थी, अब तक़रीरों की तरह एक एक घंटा दो दो घंटा नात ख़्वानी होती है और उसमें सामेईन को ऐसा चूस लिया जाता है कि वो किसी काम रह नहीं जाती। उन गवय्यो को नात पढ़ने से ज़्यादा जमने जमाने का ख़्याल रहता है, और ये सामेईन के जेब से पैसे निकालने पर सारा ज़ोर सर्फ कर देते हैं, अब तो आलम ये है कि जलसों का इन्हिसार भी उन ही गवय्यो पर हो गया है और ये मुंह मांगी रक़म अपने अकाउंट में डलवाकर जलसों में जाते हैं, भला उन करतूतों के होते हुए कौन कह सकता है कि उनकी नात ख़्वानी इबादत है ? और जलसा करना दीनी फायदे का ज़ामिन है।

सामेईन (सुनने वाले) को लिजीए तो उनका आलम और भी निराला है बल्कि जलसों के हवाले से सारी बीमारी की जड़ ये अवाम ही है, उन्हें न मसाइल सीखने से ग़रज़, न दीन की बातों से कोई मतलब और न ही नाते रसूल से कोई दिलचस्पी, ये लोग भी लुत्फो लज़्ज़त और तफरीह के लिए नातें सुनते हैं, अगर कोई संजीदगी से नाते पाक पढ़ें तो उन्हें पसंद नहीं आता, उन्हें वो गवय्ये चाहिए जो उनका जी ख़ुश करदे, उन्हें नात से नहीं उनकी आड़ी तिरछी आवाज़ से प्यार है, इसलिए आड़ी तिरछी आवाज़े निकलते ही वाह वाह की सदाए दिल ख़राश निकलनी शुरू हो जाती है, वाज़ेह रहे कि हक़ीक़ी नात ख़्वानी वही होगी जो दिल तक पहुंचे, क़ल्ब में हरारत पैदा कर दे और इश्क़े रिसालत सलल्लाहो अलैहि वसल्लम के ग़लबे से आंखों से आंसू निकल आए, अगर किसी फर्द पर ये कैफियत पैदा न हो तो कम अज़ कम मजमूई तौर पर तो पूरी मजलिस में एक कैफियत पैदा हो जाए।

मैं सबको नहीं कहता, बहुत से ऐसे लोग हैं जो ख़ुलूस के साथ प्रोग्राम करातें हैं लेकिन अक्सरियत इसमें मुब्तिला है।

मैं जलसों का क़ाइल हुं, मुन्किर नहीं, मगर उसके करने का मक़सद होना चाहिए, नात ख़्वानी इबादत है मगर उसे नात की तरह पढ़ा जाना चाहिए, खिताबत से दीनो सुन्नियत का काम लिया जाए तो ऐसी खिताबत होनी चाहिए, मगर इख़्लास भरे इस काम के लिए अवाम का ज़हन बदलना होगा, उन्हें ये बताना होगा कि उनके इस अमल से उन्हें सवाब मिल रहा है या नहीं, ये सवाब पाने की नीयत से जलसे के लिए ख़ज़ाने का मुंह खोल देते हैं मगर मोहल्ले में कोई भूखा सो रहा हो तो उसे एक वक्त का खाना नहीं खिला सकते, ये गवय्यो को एक रात का चालीस पचास हजार दे सकते हैं मगर क़ुरानो तफसीर पढ़ाने वालों को पांच हजार से ज्यादा माहाना नहीं दे सकते, ये एक शायर के एक रात का नज़राना बा आसानी 25 हज़ार दे सकते हैं मगर वही आदमी अपने बच्चों को क़ुरानो हदीस और दीनीयात का ट्यूशन पढ़ाने वाले को हज़ार रूपए देने में उनके पसीने छूट जाएं, बताया जाए ये दीनी हमिय्यतो ग़ैरत है ? इसका नाम मज़हब का दर्द और मिल्लत की फिक्र है?

इसलिए मेरे भाईयों अपने जलसों का माहौल तब्दील करें, एक मक़सद के तहत जलसा कराएं और साथ ही साथ बुनियादी कामों की तरफ तवज्जोह दें।

✍️तहरीर: ख़ादिमे अमीने शरीअ़त
मौलाना अशरफ रज़ा क़ादरी

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