इंदौर में इल्मो~अदब की इब्तिदा पर गुफ्तगू की जाए।
तो सबसे पहले इंदौर मदरसे का नाम आएगा….
जहां इंदौरी आवाम को इल्म सिखाया जाता था।
जी हां दोस्तों!!!
इंदौर मदरसा चिमन बाग मैदान में जहां महाराजा शिवाजीराव स्कूल है ठीक उसी जगह पर हुआ करता था। बाद में इसी जगह महाराजा शिवाजी राव स्कूल बना।
होलकारों ने मराठी तालीम के लिए मराठी स्कूल की बुनियाद इंदौर के सबसे पहले टॉकीज श्रीकृष्ण के ठीक सामने रखी थी।
अंग्रेजों ने रेसिडेंसी स्कूल नामक की शुरुआत छावनी में की। गाड़ी अड्डे जूनी इंदौर में सिंधी भाषी स्कूल भी खुला। आलापूरा में हिंदी के लिए 3 नंबर स्कूल था।
फिर राजकुमारों की पढ़ाई के लिए डेली कॉलेज बना।
आम जनता क्रिश्चियन कॉलेज से काम चलाती थी।
इंदौर मदरसा से ही इंदौर का सबसे पहला अखबार निकला। हिंदी और उर्दू दोनों जुबानों में अखबार छपता था। क्योंकि होलकरों की सेना में पठान सैनिकों की बहुत बड़ी फौजी तादाद थी। जो पास ही के रिसाला में आबाद थी।
174 साल पहले मध्यप्रदेश/इंदौर के पहले हिंदी अखबार की इब्तिदा 6 मार्च 1849 को इंदौर मदरसा से हुई।
अखबार का नाम था मालवा अखबार |
शुरू~शुरू में अखबार हफ्तावर था।
साप्ताहिक समाचार पत्र “मालवा अखबार” की खबरों के असर से घबराकर ही तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट लागू किया था।
वर्नाक्यूलर कानून मतलब किसी भी जुबान में छपने वाले किसी भी अखबार के लिए सरकार से लाइसेंस लेना। जिसे किसी भी समय रद्द किया जा सकता था। सरकार के पास किसी भी लेख या सामग्री को सेंसर करने की ताकत भी थी। ऐसी खबरों को वो नहीं छपने देती थी जिससे बगावत की बू आती हो।
पता चली इंदौरियों की ताकत।
अंग्रेजों को हिला डाला। नतीजन ब्रिटिश सरकार ने अखबारों को लाइसेंस देने की शुरूआत इंदौर से की।
जब इंदौरियों को पढ़ने के लिए किताब घर यानि लायब्रेरी की जरूरत महसूस हुई तो महाराजा इंदौर आगे आए। 1854 में ही राजबाड़ा के सामने कोने पर जनरल लाइब्रेरी शुरू की गयी जिसमे हिंदी , मराठी और अंग्रेजी अखबार और पत्रिकाए आने लगी।
इंदौर की आवाम को पढ़ने का शौक और जज्बा पैदा हुआ। इसका फायदा ये हुआ कि लोगों में सामाजिक, शैक्षणिक, साहित्यिक और राजनैतिक सुझबुझ पैदा हुई।
अच्छे~बुरे की समझ आने से इंकलाब के जज़्बात उभरे।
देश~विदेश के समाचारों-विचारों ने जनता में ब्रिटिश राज्य और भारत की गुलामी के संबंध में मालूमात बढ़ी।
इंदौर की जनरल लायब्रेरी इल्म का अड्डा बन गई।
होलकर महाराज ने आम जनता के लिए यहां अखबारों को पढ़ने की सुविधा फ्री कर दी। आम जनता यहां इकट्ठे होकर आपस में विचार~विमर्श करने लगी। क्रांति का आगाज हुआ। लोग अपने हक को समझने लगे। जागरूक होने लगे।
इस जाग्रति का गहरा असर होलकर सेनाओ में भी हुआ। उनमें अंग्रेजो के प्रति गुस्सा फूटने लगा। देश भक्ति और आजादी की भावनाएं मजबूत हुई |
महाराजा तुकोजीराव-द्वितीय ने आसपास के राजा-नवाबो के पास गुप्त संदेश भेजे | गोया जनरल लायब्रेरी देशभक्तों का मरकज बन गई।
वक्त गुजारा ।
देश आजाद हुआ।
जनरल लायब्रेरी का जलवा कायम रहा।
ये लायब्रेरी 2 मंजिला थी। ऊपरी मंजिल तक जाने के लिए लकड़ी की लंबी~चौड़ी सीढियां पार करना पड़ती। यहां के घुमावदार खूबसूरत जीने आज भी मेरी यादों में शुमार हैं। खूबसूरत नक्काशीदार लकड़ियों से बनी इमारत थी। सड़क की तरफ दक्षिणी सहन खुला हुआ था। नीचे मच्छरदानियों और कपड़ों की दुकानें थी।
1995 से लेकर 2000 तक
मैं भी इस लायब्रेरी का मेंबर था। दोस्तों को जबरदस्ती पकड़कर ले जाता। किताब पढ़ने के लिए घर भी ले आता। दूसरी मंजिल के वाचनालय में ढ़ेरों किताबें थी।
मायापुरी से लेकर चंपक , लोटपोट ,मेरी सहेली , गृहशोभा सभी किस्म की मुख्तलिफ किताबें मौजूद रहती थी। तमाम अखबार भी आते थे।
लकड़ी के बड़े~बड़े फट्टो के बीच दैनिक अखबार फंसाकर रखते थे । जिसे पढ़ने के लिए खड़े रहकर पेज पलटना होता। एक~एक अखबार पर चार~चार जने लुमटते थे। 😜
कभी~कभार मेरे जैसे किशोर कुछ खडूस बूढ़ों की बुरी नजर का शिकार हो जाते। अखबार के पेज पलटने के बहाने वो इधर~उधर हाथ मार देते। 😁
2000 के बाद….
मोबाइल क्रांति ने सब गुड़~गोबर कर दिया।
लोग अखबार घर पर पढ़ने लगे। ऑनलाइन जमाने में लायब्रेरी बंद हो गई। 1854 में बनी जनरल लायब्रेरी 2021 आते~आते खस्ता हाल हो गई और अब जनरल लायब्रेरी की जगह मलबे का ढेर हैं। इमारत का नामो~निशान तक बाकी ना रहा।😭
शायद करीब की बिल्डिंग में लायब्रेरी शिफ्ट की गई है
मैंने पड़ोस की बिल्डिंग पर जनरल लायब्रेरी का बोर्ड टंगा हुआ देखा था।
बहरहाल किताबघरों में जाकर अखबार/किताबों के पन्ने पलटना और पढ़ने के लिए घर लाना ये सब गुजरे जमाने की बातें है। मोबाइल ही अब किताबघर है।
ये गुजिश्ता पल माझी के वो हसीन लम्हें हैं….
जब आते हैं तो खूब याद आते हैं।
( तस्वीर : इंदौर जनरल लायब्रेरी ~राजबाड़ा)
✍️ जावेद शाह खजराना (लेखक)
9340949476