लेख

“बल्ली की होटल” में राहत साहब की दावत

पुराने इंदौर का एक अदबी किस्सा है।
वफ़ा नाम की शायरा थी। मुशायरे में बहुत कम शिरकत करती थी लेकिन आकाशवाणी लखनऊ में इनकी आवाज अक्सर सुनाई देती। इनके कई शेर बहुत मकबूल हैं। मुलाहिजा फरमाए

” मैने ये सोच के बोये नहीं ख्वाबों के दरख़्त,
कौन जंगल में लगे पेड़ को पानी देगा। “

एक मर्तबा राहत इंदौरी साहब के इसरार पर मुशायरे में हिस्सा लेने के इंदौर तशरीफ लाई । राहत साहब ने तार्रुफ करते हुए बताया कि वफा बेगम बेहतरीन शेर कहती थी अंदाजे बयान ऐसा कि उनके सामने शायरा तो क्या शायर भी फीके पड़ जाए।

उस जमाने में इंदौर में फाईव स्टार होटलें तो थी नहीं और मुशायरे में इतना भारी लिफाफा भी नसीब नहीं होता था कि महंगे होटल में जाया जा सके। इसलिए राहत साहब रेलवे स्टेशन के सामने कल्याण विश्रांति के बाजू मौजूद ‘बल्ले की होटल’ जा पहुंचे। “बल्ली की होटल” आज भी कायम है।

इंदौर शुरू से खानपान के मामले में आगे है। बल्ली की होटल के गोश्त~बाफले बहुत फेमस थे। इतने लजीज कि खाने वाला उंगलियां तक चाट जाए।

टीन के चद्दरों से बना और उसी से ढका हुआ होटल। कुर्सी~मेज या चारपाई नहीं बल्कि जमीन पर चटाई बिछाकर खाने का इंतजाम था। वहां लोग गोश्त~बाफले निपटाने जाते थे। मालवा और राजस्थान में दाल~बाफले बहुत फेमस है उसी का नानवेज वर्जन है गोश्त~बाफले।

राहत साहब जब उन्हें लेकर होटल पहुंचे तो बल्ली की होटल वाले बल्ले जी को समझाया फिर वफ़ा बेगम से बात कि और बताया कि यहां चटाई पर बैठकर खाने का इंतजाम है मेज कुर्सी या कोई चारपाई नहीं है। क्या आप यहां बैठकर खा पाएगी?

वफ़ा बेगम गर्ल्स इंटर कालेज में इंग्लिश की टीचर थी।
राहत साहब से बहुत सीनियर । उन्हें
बेतकुल्लफी हुई।
उन्होंने कहा__ अरे राहत !!!

राहत साहब बोल पड़े_ ‘मजा आ जायेगा। यकीन मानिए’
किसी तरह वो तैयार हो गई।

बल्ली की होटल ठेठ देशी ढाबा था। पानी की बंद बोटलें आम नहीं थी। यहां तक कि पानी के मग और स्टील के जग का भी इंतजाम नहीं था। ट्रक ड्राइवर जो आयल के खाली डिब्बे फेंक देते थे उन्हें धो-धाकर बल्ले भाई ने आधा काट के पानी पीने के बर्तन जैसे बना लिया था। इंदौरी जुगाड थी।

राहत साहब के लाज~लिहाज में वफा बेगम ने जमीन पर बिछी चटाई पर पालकी मारकर गोश्त~बाफले का लुत्फ उठाया । राहत साहब की मेजबानी की तरह उनकी पसंदीदा डिश यानि गोश्त~बाफले भी काबिले तारीफ थे।

उस यादगार दावत के बाद दीगर मकामात पर जब भी वफा बेगम और राहत साहब का आमना~सामना होता। वफा बेगम बोलती__ “राहत तू एक बार मुझे इंदौर और बुला ले। सिर्फ गोश्त~बाफले के लिए बुला ले। मैं मुशायरे के पैसे नहीं लूंगी सिर्फ जमीन पर बैठाकर उसी मोहब्बत से गोश्त~बाफले खिला देना।

देखा दोस्तों!!
ऐसी मेजबानी थी राहत इंदौरी की। वफा बेगम ने तमाम उम्र गोश्त~बाफले की दावत को याद रखा।

इंदौर रेलवे स्टेशन के सामने कल्याण विश्रांति गृह के बाजू , फिल्म कॉलोनी रोड़ पर आज भी टीन शेड से बनी ढ़ेरों खानपान की होटलें हैं उन्ही के बीच बल्ली की होटल आज भी राहत साहब जैसे मेजबानों की यादें लिए जिंदा है।

लगता है ऐसे ही किसी मौके या दावत को लेकर राहत इंदौरी साहब ने ये शेर लिखा होगा

बोरिये पे बैठीए , कुल्हड़ में पानी पीजिए ,
हम कलंदर है , हमारी मेजबानी और है।

पेशकर्दा
जावेद शाह खजराना (लेखक)
9340949476

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