जीवन चरित्र

फातेह-ए-तबरेज़ व ईरान सुल्तान सेलिम यावुज़

जब शहजादे बायज़ीद के घर में नन्हें सेलिम की पैदाइश हुयी उस वक्त उस्मानिया सल्तनत में सुल्तान मुहम्मद अल-फ़तेह की हुकूमत कायम थी। सुल्तान सेलिम ने बचपन से ही उस्मानी तुर्कों को तरक्की करते और एक के बाद एक जंगों में फातेह होते देखा था। सुल्तान मुहम्मद अल-फ़तेह की वफ़ात के बाद जब शहजादे सेलिम के वालिद बायज़ीद II सुल्तान बने तो उनके भी 31 साल लंबे दौर-ए-हुकूमत में सल्तनत में अमनो-अमान कायम रहा और उस्मानी तरक्की करते रहे। लेकिन जब जेनेसरीज फौज ने सुल्तान के खिलाफ बगावत कर दी। तब सल्तनत की बागडोर सेलिम के हाथों में आ गयी। सुल्तान सेलिम के दौर-हुकूमत को सल्तनत-ए-उस्मानिया के सुनहरे दौर का आगाज़ भी माना जाता है। जो की उनके साहबज़ादे सुल्तान सुलेमान आलीशान की दौर-ए-हुकूमत तक कायम रहा।

महज 9 वर्षों की हुक्मरानी में सुल्तान सेलिम यावुज़ ने सफ़विद सल्तनत की दारुलहुकूमत तबरेज पर हमला कर उसे फतह कर लिया था। लेकिन उस्मानी फौज को ईरान की गर्मी बर्दाश्त न हो सकी फौज ने ईरान में रुकने से इनकार कर दिया था। इसी कारण उस्मानी लम्बे समय तक ईरान पर अपना कंट्रोल बरक़रार नहीं रख सके।

सुल्तान सेलिम I को ईरान फतह करने के तुरंत बाद सीरिया के ममलूक गवर्नरों और कुछ सरदारों के ऐसे खत मिले जिन्हे पढ़ कर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

ईरान से वापस आ चुकी उस्मानी फौज को अब खुश करने के लिए उन्हें कोई आसान हदफ़ देना था। जिसका हल सुल्तान सेलिम I को मिले उस खत में मौजूद था।

उस खत में ममलूक गवर्नर और कुछ सरदारों ने सेलिम I से दरखास्त की थी की अगर उस्मानी उन्हें ओहदों और माल में हिस्सेदार बनाने का वादा करें तो वह ममलूक सल्तनत के खिलाफ उस्मानियों की ख़ुफ़िया मदद करेंगे। इन सरदारों में सबसे अहम् था अल्लेपो का गवर्नर हयीर बे। सुल्तान सेलिम I की पहले से ही खिलाफत पर नजरें गढ़ी हुयीं थीं। अब सेलिम I ने ईरान के मुश्किल महाज पर अपनी फौज भेजने का इरादा दिल से निकाल दिया और ममलूको से जंग को तरजीह दी।

सुल्तान सेलिम I ने एक बड़ी फौज के साथ ममलूक सल्तनत की ओर पेशकदमी शुरू कर दी। 24 अगस्त 1516 को सीरिया के अल्लेपो शहर से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर मिरवाज के इलाके में मम्लूकों और उस्मानियों में जबरदस्त जंग हुयी। इस लड़ाई में उस्मानी फौज की तोपों और बंदूकों के आगे ममलूकों के तीर और नेजे टिक नहीं सके लड़ाई में उनकी बुरी तरह से हार हुयी। इसके साथ ही 750 सालों से कायम खिलाफते अब्बासिया का उस्मानियों के हाथों खात्मा हो गया। अब ये खिलाफत उस्मानियों के पास आ गयी थी। यही से उस्मानी सल्तनत में खिलाफत की शुरुआत हुयी थी।

सुल्तान सेलिम की मौत के बारे में कहा जाता है की वो लम्बे समय से सर्पेंस की बीमारी से ग्रसित थे एक ऐसा त्वचा संक्रमण जिसे उन्होंने अपने लंबे अभियानों के दौरान विकसित किया था। उसी कारण उनकी वफ़ात हुयी थी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनकी वफ़ात कैंसर से हुई थी या उनके चिकित्सक ने ही उन्हें जहर दिया था। और कुछ का ये भी मानना है की उनकी वफ़ात सल्तनत में फैली एक बीमारी प्लेग की वजह से हुयी थी जिससे वो खुद भी पीड़ित थे। मौत के बाद उन्हें इस्ताम्बुल में ही दफ़न किया गया था जहाँ बाद में उनके बेटे सुलेमान आलीशान (suleiman the magnificent) ने एक मस्जिद की तामीर कराई जिसे आज यावुज़ सुल्तान सेलिम मस्जिद के नाम से जाना जाता है।

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