ज़की तारिक़ बाराबंकवी
सआदतगंज,बाराबंकी, यूपी
छूते ही जिस्म को बन बैठा शरारा पानी
उस ने जब मेरी तरफ़ प्यार से फेंका पानी
एक मुद्दत से वो, जो सूख चला था पानी
ग़म तेरा सुन के मेरी आँख से निकला पानी
ढालता जाता है ज़ौ रेज़ से मोती जानाँ
क़तरा क़तरा तेरे बालों से टपकता पानी
पूछो मत लाया है बरबादियाँ कैसी कैसी
जब भी मर्यादा की दहलीज़ को लाँघा पानी
जिस की ख़ुनकी ने तेरा लम्स नवाज़ा था मुझे
फिर कभी वैसा करम फ़रमा न बरसा पानी
ये सदा जीतता आया था ज़माने से मगर
वास्ता जब पड़ा मुझ से तो है हारा पानी
जामे- कौसर के लिए भी तो ज़रूरी थी प्यास
वरना मैं ऐड़ी रगड़ता ओर उबलता पानी
शिद्दते- दर्द की मंज़िल से गुज़र कर अक्सर
हम ने देखा है “ज़की” आग का बनना पानी