1857 का वर्ष भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जब देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की लहर फैल गई थी। दिल्ली, जो उस समय विद्रोह का एक प्रमुख केंद्र थी, में भी अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक असंतोष था। इस बीच, ईद अल-अज़हा (बकरीद) का त्योहार आया, जो इस्लाम में एक महत्वपूर्ण धार्मिक अवसर है।
अंग्रेजों की साजिश
अंग्रेजों ने इस अवसर का लाभ उठाने और हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़काने की एक चालाकी भरी साजिश रची। उन्होंने कुछ मुसलमानों को अपने साथ मिलाकर उन्हें जामा मस्जिद के सामने खुले में गाय की कुर्बानी देने के लिए उकसाया। यह एक जानबूझकर किया गया प्रयास था ताकि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ सके और दंगा भड़क उठे। कई मुसलमान उनके बहकावे में आकर गाय खरीदने के लिए तैयार हो गए थे।
बहादुर शाह ज़फर की सूझबूझ
लेकिन उस समय के बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला लिया। उन्होंने एक फरमान जारी किया जिसमें गाय की कुर्बानी देने और उसका गोश्त खाने पर सख्ती से पाबंदी लगा दी गई। इस फैसले से शहर में होने वाले एक बड़े फसाद को टाल दिया गया और हिंदू-मुस्लिम एकता बनी रही।
अंग्रेजों की मायूसी
अंग्रेजों ने अपने एजेंट गौरी शंकर के माध्यम से योजना बनाई थी कि वे दोपहर से पहले हमला करेंगे, जब मुसलमान गाय की कुर्बानी देंगे और हिंदुओं के साथ दंगा भड़क जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इससे मायूस होकर एक अंग्रेज अधिकारी हार्वी ग्रेटहेड ने अपनी पत्नी को एक पत्र में लिखा कि “ये उन मुसलमानों के साथ कैसा मज़ाक है, जो मजहब के लिए जंग कर रहे हैं उनको ईद पर एक मुसलमान बादशाह से गाय की कुर्बानी की भी इजाजत नहीं मिली।”
एकता का परिचय
हालांकि अंग्रेजों ने ईद अल-अज़हा के दिन हमला तो किया, लेकिन हिंदू और मुस्लिम ने मिलकर उनका सामना किया और हमले को नाकाम बना दिया। इस दौरान बहादुर शाह ज़फर ने बख्त खान को एक शेर भी भेजा था जो उनकी हिम्मत और एकता की भावना को दर्शाता है:
लश्कर: अहद-ए-इलाही आज सारा क़त्ल हो
गोरखा गोरे से ता गुज्जर अंसारी क़त्ल हो
आज का दिन ईद-ए-क़ुरबान का जब ही जानेंगे हम
ऐ ज़फ़र तहे तेग़ जब क़ातिल तुम्हारा क़त्ल हो
यह ऐतिहासिक वाकया हिंदू-मुस्लिम एकता और बहादुर शाह ज़फर की सूझबूझ का एक अद्वितीय उदाहरण है। अंग्रेजों की दंगे भड़काने की साजिश को नाकाम कर दिल्ली की जनता ने अपनी एकता और शक्ति का प्रदर्शन किया। यह घटना हमें सिखाती है कि धार्मिक और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है और कैसे एक सूझबूझ वाले नेतृत्व से बड़े संकटों को टाला जा सकता है।