धार्मिक सामाजिक

गैर मुस्लिम के साथ भाईचारा

दोस्तो,जो काफिर ईश्वर भक्त मुसलमानों से नहीं लड़ते, उनके लिए बुरी युक्तियां नहीं करते, परन्तु उनके साथ शांति से रहना चाहते हैं, उन काफिरों (गैर मुस्लिमों) के लिए क़ुरआन का साफ आदेश देखें-

“जो लोग तुमसे तुम्हारे धर्म के बारे में नहीं लड़ते और न तुम्हें घरों से निकालते, उन लोगों (गैर मुस्लिमों) के साथ सद व्यवहार करने और उनके साथ न्याय से पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता, बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है।”
(सुरः मुमतहीना 60:8)

दोस्तों, क़ुरआन की यह एक आयत ही आपत्ति करने वालों के जवाब में बहुत है। लेकिन आपत्ति करने वाले कह सकते है कि-

“क्या पैग़म्बर मुहम्मद (स०) और उनके सहाबा (अनुयायियों) ने इस आयत का पालन किया है?”

जी हाँ, नबी और उनके अनुयायियों की तो पूरी ज़िंदगी ही ग़ैर मुस्लिमों के साथ भलाई करते बीती है। युद्ध तो उन्होंने सिर्फ अत्याचारियों से किए हैं, और अधिकतर तो उन्हें भी माफ ही किया है।
आइये इसके कुछ चंद नमूने आम आपके सामने रखते हैं।

“एक दिन नबी ने देखा कि एक गैर मुस्लिम गुलाम आटा पीस रहा है और दर्द से कराह रहा है, आप उसके पास गए तो पता चला कि वो बहुत बीमार है और उसका मालिक उसको छुट्टी नहीं देता। नबी ने उसको आराम से लिटा दिया और सारा आटा स्वयं पीस दिया, और कहा, “जब तुम्हें आटा पीसना हो तो मुझे बुला लिया करो।”
(सहीह अब्दुल मुफ़रद 1425)

“एक देहाती ने मस्जिद में पेशाब कर दिया, लोग उसे पीटने के लिए दौड़े, तो नबी ने उनको रोक कर कहा-” इसे छोड़ दो और इसके पेशाब पर पानी डाल दो इसलिए कि तुम सख्ती करने वाले नहीं, आसानी करने वाले बनाकर भेजे गए हो।”
(सहीह बुखारी, किताबुल वुजू)

“एक बार नबी के एक अनुयायी किसी बात पर अपने गैर मुस्लिम गुलाम को मार रहे थे, संयोग से नबी ने देखा तो दुखी होकर कहा: “जितना अधिकार तुम्हें इस गुलाम पर है, अल्लाह को तुम पर इससे ज़्यादा अधिकार है।” इतना सुन कर वो डर कर बोले, “ऐ नबी, मैं इस गुलाम को आज़ाद कर देता हूँ, तो नबी ने कहा: “यदि तुम ऐसा ना करते तो नर्क की आग तुमको ज़रूर छूती।”
(अबू दाऊद, किताबुल अदब)

नबी ने कभी किसी गैर मुस्लिम पर ज़ुल्म नहीं होने दिया, हमेशा न्याय से काम लेते।

“एक बार एक गैर मुस्लिम का एक मुसलमान से झगड़ा हो गया, तो फैसले के लिए दोनों पक्ष नबी के पास आये, दोनों के बयान सुनकर नबी ने फैसला गैर मुस्लिम के हक़ में दिया।”

“पैग़म्बर मुहम्मद (स०) गैर मुस्लिमों के तोहफे भी कुबूल करते थे, और उनको तोहफे भी देते थे। ऐला के हाकिम ने आपको एक सफेद खच्चर तोहफे में दिया, आपने उसे कुबूल किया और उसकी तरफ एक चादर भिजवाई।”
(सहीह बुखारी, कितबुज़्ज़कात)

“ईसाइयों का एक प्रतिनिधि मंडल मदीना आया तो नबी ने उनकी खूब मेहमानदारी की और उनको मस्जिद में ठहराया, और साथ ही मस्जिद में उन्हें उनके अपने तरीके पर इबादत करने की अनुमति भी दी।”
(सहीह मुस्लिम, किताबुल अदब)
(अलबिदाया वन्निहाया, भाग-3, पेज नंबर 105)

नबी का आदेश था कि “वो मुस्लिम नहीं हो सकता जो खुद पेट भर कर खाये और उसका पड़ोसी (मुस्लिम या गैर मुस्लिम) भूखा रहे।”
(सहीह अदबुल मुफ़रद 82)

इस्लामिक देशों में रहने वाले गैर मुस्लिमों को इस्लाम की परिभाषा में “ज़िम्मी” कहा जाता है, और मुसलमानों को नबी का साफ आदेश है-

“जिसने किसी ज़िम्मी (ग़ैर मुस्लिम) पर अत्याचार किया, उसका हक़ मारा, उसकी ताक़त से ज़्यादा उस पर बोझ डाला या उसकी इच्छा के बिना उसकी कोई चीज़ ले ली तो मैं क़यामत के दिन उसकी और से दावा करूँगा।”
(अबू दाऊद, बैहक़ी भाग-5, पेज नंबर 205)

“एक मुसलमान ने एक ज़िम्मी (गैर मुस्लिम) को क़त्ल कर दिया, तो हज़रत उमर ने अपने एक गवर्नर को आदेश दिया कि उस मुसलमान को उस ज़िम्मी के करीबी रिश्तेदार के सामने ले जाओ फिर चाहे तो वो उसे माफ करदे या जान से मार दे और उस रिश्तेदार ने उस मुसलमान की गर्दन काट दी।”

दोस्तों, ये था न्याय और पैग़म्बर मुहम्मद की मृत्युपरान्त आपके सहाबा भी ज़िम्मी (गैर मुस्लिमों) की इज़्ज़त, आबरू, माल, दौलत, और धार्मिक स्वतंत्रता का बड़ा ध्यान रखते थे-
“हज़रत उमर (रज़ि०) विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले प्रतिनिधि मंडल से पूछा करते थे, कि किसी मुसलमान की वजह से किसी ज़िम्मी (गैर मुस्लिम) को कष्ट तो नहीं दिया जा रहा।”
(तारीखे तबरी, भाग-4, पेज 218)
हज़रत खालिद बिन वलीद ने आनात के वासियों के साथ जो समझौता किया उसमें ये वाक्य शामिल था-
“नमाज़ के समयों के अतिरिक्त वे रात दिन जब चाहे नाकूस (शंख) बजा सकते है और जश्न के दिनों में सलीबें गश्त करा सकते हैं।”
(किताबुल खिराज़ पेज नंबर 146)

ये चंद उदाहरण है कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर मुस्लिम भाई बहनों के साथ सद व्यवहार करने और उनके साथ न्याय से पेश आने का आदेश है।

अब आपत्ति करने वाले कह सकते है कि,
“इस्लाम में गैर मुस्लिम को दोस्त बनाने से मना किया है, और मुस्लिम सिर्फ मुस्लिमों से दोस्ती कर सकते है!”
(क़ुरआन 3:28, 9:23, 3:118)

गैर मुस्लिम में से सिर्फ उन लोगों से दोस्ती करने को मना किया गया है जो मुसलमानों का नुकसान चाहते है और इस्लाम का मज़ाक उड़ाते है, देखें-

“ऐ ईमानवालों, जिसने तुम्हारे धर्म को हँसी खेल बना लिया है, उन्हें मित्र ना बनाओ।
(सुरः माइदा 5:57)

“अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया, और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला, और तुम्हें निकालने में अत्याचारियों की मदद की।”
(सुरः मुमतहीना 60:9)

👉 दोस्तों, यदि कोई व्यक्ति आपके धर्म को बुरा कहे, आपके भगवानों को गालियां दे, और आपकी बर्बादी के लिए कोशिशें करे तो क्या ऐसे व्यक्ति से आप दोस्ती करोगे???

साथ ही एक मंशा के तहत यह बताने की कोशिश की जाती है कि मुस्लिम विश्व मे कभी किसी के साथ शान्ति से नही रहा, जो कि पूर्ण असत्य और निराधार बात है, ज़्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नही बल्कि आज भी एक निरपेक्ष व्यक्ति यह जानता है कि विश्व मे कई मुस्लिम देश है जिनमे सदियों से गैर मुस्लिम बड़ी शांति और आराम से रह रहे हैं, बल्कि आंकड़े बताते हैं कि हर साल इन देशो में जाने और वहीं बस जाने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। क़तर, कुवैत, ओमान, दुबई ऐसी कई जगह हैं। खाड़ी देशों को छोड़ भी दे तो मलेशिया में 61.3% मुस्लिम है जो बाकी 39 % गैर मुस्लिमों के साथ शांति से रह रहे हैं यही स्तिथि इंडोनेशिया की है , सिंगापुर आदि ऐसे कई मुल्क हैं जहाँ इस्लाम दूसरा या तीसरा प्रमुख धर्म है। और इन सभी जगह सदियों से मुस्लिम – गैर मुस्लिमों के साथ शांति से रह रहे हैं।

और आखिर में अंतिम ऋषि मुहम्मद (स०) की ये आम शिक्षा हर मुस्लिम गैर मुस्लिम के लिए है कि,
“तुम ज़मीन वालों पर दया, मेहेरबानी करो, आसमान वाला तुम पर दया, मेहेरबानी करेगा।”
(अबू दाऊद, किताबुल अदब)

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