बेशक अल्लाह हर दिशा में हर और पूरब पश्चिम सब अल्लाह ही का है तो तुम जिधर मुंह करो उधर वज्हुल्लाह (ख़ुदा की रहमत तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जेह) है बेशक अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है. क़ुरान 2:115
लेकिन अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम और आसानी करते हुए उनके लिए एक क़िबला (direction) मुकर्रर कर दिया ताकि वे जब भी जहाँ कहीं भी हों, नामज़ अदा करें तो सभी 1 ही direction में अदा करें। ताकि किसी तरह के इख्तिलाफ (मतभेद) या confusion की गुंजाइश ना रहे।
(हे नबी!) हम आपके मुख को बार-बार आकाश की ओर फिरते देख रहे हैं। तो हम अवश्य आपको उस क़िबले (काबा) की ओर फेर देंगे, जिससे आप प्रसन्न हो जायें। तो (अब) अपने मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेर लो[ तथा (हे मुसलमानों!) तुम भी जहाँ रहो, उसी की ओर मुख किया करो… क़ुरान 2:144
इसलाम एकता और अनुशासन (discipline) का प्रतीक है। मुस्लिम दिन में पाँच बार नमाज़ अदा करते हैं जो कि सामूहिक रूप से अदा करना श्रेष्ठ है। यदि कोई क़िबला मुकर्रर नही किया गया होता तो कोई किधर चेहरा कर के नमाज़ अदा करता तो कोई किसी दूसरी और। जिस से जमात से नमाज़ पढ़ना मुमकिन नही हो पाता और हर वक्त मतभेद और confusion की स्थिति बनी रहती । इसलिये अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम करते हुए उनके लिए एक क़िबला मुकर्रर किया और उसी और चेहरा कर नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया। अतः अल्लाह के हुक्म का पालन करते हुए विश्व भर में जहाँ कहीं भी नमाज़ अदा करते हैं तो काबे की दिशा में करते हैं।
➡️ इसी संबन्ध में ग़लतफ़हमी और अज्ञानता के चलते कुछ गैर मुस्लिम यह समझ लेते हैं कि काबे कि इबादत (पूजा/उपासना) कि जाति है। जबकि मुस्लिम काबे कि इबादत नहीं करते हैं ना ही उसे पूजनीय समझते हैं ।
▪️काबा के मुकाम पर स्थित “हजरे-अस्वद” (काले पत्थर) से संबंधित दूसरे इस्लामी शासक हज़रत उमर (रज़ि.) से एक कथन उल्लिखित है। हदीस की प्रसिद्ध पुस्तक “सहीह बुख़ारी” भाग-दो, अध्याय-हज, पाठ-56, हदीस न. 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ि.) ने फ़रमाया–
“मुझे मालूम है कि (हजरे-अस्वद) तुम एक पत्थर हो। न तुम किसी को फ़ायदा पहुँचा सकते हो और न नुक़सान और मैंने अल्लाह के पैग़म्बर (सल्ल.) को तुम्हें छूते (और चूमते) न देखा होता तो मैं कभी न तो तुम्हें छूता (और न ही चूमता) ।”
▪️इसके अलावा लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे :-
अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सलल्लाहो अलैहिवस्स्ल्म के ज़माने में तो लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे। यह बात इतिहास से सिद्ध है। अब जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि मुसलमान काबा की उपासना (इबादत) करते हैं उनसे पूछना चाहिए कि भला बताइए तो सही कि कौन मूर्तिपूजक मूर्ति पर चढ़कर खड़ा होता है।
▪️इस बात में किसी प्रकार का संदेह बाकी ना रहे इसीलिए मुहम्मद सल्लाहो अलैही व सल्लम के जीवन काल मे ही अल्लाह ने तहविले क़िबला (क़िबले का बदलना) कर यह बात खुद मुहम्मद सल्लाहो अलैही व सल्लम और सहबाओ से प्रैक्टिल कर सबके सामने स्प्ष्ट कर दी गई, की जब आप मक्का में थे तब अल्लाह का आदेश क़िबला (का’बा) की तरफ चेहरा कर नमाज़ पढ़ने का था। जब आप मुहम्मद सल्लाहो अलैही व सल्लम मदीना तशरीफ़ ले गए तो अल्लाह ने उन्हें बैतूल मुकद्दस की तरफ चेहरा कर नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया जिस पर साल भर से ज़्यादा अमल होता रहा। फिर अल्लाह के हुक्म आ जाने के बाद आखरी मर्तबा तहविले हुआ और फिर दौबारा काबे की तरफ रुख कर नमाज़ अदा की जाने लगी।
जिस से साबित हो गया कि मुसलमान ना काबे को पूजनीय समझते हैं ना पूजते हैं यह तो सिर्फ अल्लाह का आदेश है उसने जिधर रुख करने का कहा उस तरफ रुख कर नमाज़ की जाती है।
और अंत में इस सम्बन्ध में कुर’आन की यह आयत ही पर्याप्त है: –
नेकी यह नहीं कि तुम अपने मुँह मशरिक या मग़रिब की तरफ कर लो, मगर नेकी यह है जो ईमान लाए अल्लाह पर और यौमे आखिरत पर और फरिश्तों और किताबों पर और नबियों पर, और उस (अल्लाह) की मुहब्बत पर माल दे रिश्तेदारों को और यतीमों और मिस्कीनो को और मुसाफिरों को और सवाल करने वालों को और गर्दनों के आज़ाद कराने में, और नमाज़ काईम करे और ज़कात अदा करे, और जब वह अहद करें तो उसे पूरा करें, और सब्र करने वाले सख्ती में और तकलीफ में और जंग के वक़्त, यही लोग सच्चे हैं, और यही लोग परहेज़गार हैं। क़ुरान-2:177