गोरखपुर। मंगलवार को मस्जिदों में जंगे बद्र की दास्तान बयां की गई। मरकजी मदीना जामा मस्जिद रेती चौक में मुफ्ती मेराज अहमद क़ादरी ने कहा कि 17 रमज़ानुल मुबारक सन् 2 हिजरी को जंगे बद्र हक़ और बातिल के बीच हुई। जिसमें 313 सहाबा-ए-किराम की मदद के लिए फरिश्ते जमीन पर उतरे।
नूरी मस्जिद तुर्कमानपुर में मौलाना मो. असलम रज़वी ने कहा कि जंगे बद्र में दीन-ए-इस्लाम की फतह ने इस्लामी हुकूमत को अरब की एक अज़ीम ताकत बना दिया। इस्लामी इतिहास की सबसे पहली जंग मुसलमानों ने खुद के बचाव (वॉर ऑफ डिफेंस) में लड़ी। क़ुरआन-ए-पाक में है कि “और यकीनन अल्लाह ने तुम लोगों की मदद फरमायीं बद्र में, जबकि तुम लोग कमजोर और बे सरोसामां थे पस तुम लोग अल्लाह से डरते रहो ताकि तुम शुक्रगुजार हो जाओ”।
गौसिया जामा मस्जिद छोटे काजीपुर में मौलाना मोहम्मद अहमद निज़ामी ने कहा कि जंगे बद्र में मुसलमानों की तादाद 313 थी। वहीं बातिल कुव्वतों का लश्कर मुसलमानों से तीन गुना से ज्यादा था। जंगे बद्र में मुसलमान कुफ्फार के मुकाबले में एक तिहाई से भी कम थे और कुफ्फार के पास असलहा भी मुसलमानों से ज्यादा था। इसके बावजूद भी नुसरते इलाही की बदौलत कामयाबी ने मुसलमानों के कदम चूमे।
मस्जिद खादिम हुसैन तिवारीपुर में कारी अफ़ज़ल बरकाती ने कहा कि जंगे बद्र में कुल 14 सहाबा-ए-किराम (पैग़ंबर-ए-आज़म हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथी) शहीद हुए। इसके मुकाबले में कुफ्फार (असत्य ताकत) के 70 आदमी मारे गए। जिनमें से 36 हज़रत अली रदियल्लाहु अन्हु के हाथों जहन्नम पहुंचे। जंगे बद्र में मुसलमानों की तादाद कुल 313 थी। किसी के पास लड़ने के लिए पूरे हथियार भी न थे। पूरे लश्कर के पास सिर्फ 70 ऊंट और दो घोड़े थे। जिन पर सहाबा बारी-बारी सवारी करते थे। मुसलमानों का हौसला बुलंद था। अल्लाह के फ़ज़ल से अजीम कामयाबी मिली।