राजनीतिक

शुभचिंतक कौन ? राजनीतिक दल या मुसलमान!

एक बोटी गोश्त और थाने में एक कुर्सी के इर्दगिर्द घूमती मुस्लिम राजनीति पर एक विशेष विश्लेषण

लेखक: मुहम्मद ज़ाहिद अली मरकज़ी कालपी शरीफ़
अध्यक्ष: तहरीक-ए-उलमा-ए-बुंदेलखंड।
सदस्य: रौशन मुस्तक़्बिल दिल्ली।

जिसने कुछ एहसां किया, एक बोझ सर पर रख दिया
सर से तिनका क्या उतारा, सर पे छप्पर रख दिया

जलाल लखनवी की यह पंक्तियाँ मुसलमानों की राजनीतिक स्थिति पर एकदम सटीक बैठती हैं, स्वतंत्र भारत में इन पंक्तियों का उदाहरण कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। मुसलमान अपने नेता, अपने धार्मिक भाई पर भरोसा तो नहीं करता, लेकिन दूसरों पर इस तरह भरोसा रखता है कि बड़े से बड़े विद्वान या अल्लाह वाला भी आ जाये तो उनकी बात भी नकार देंगे। यह समाज मानसिक रुप से इतना पिछड़ा हुआ है कि इसके सबसे क़रीब का पड़ोसी, अपना भाई, रिश्तेदार उसी की लोकप्रिय राजनीतिक पार्टी का सताया हुआ होता है, लेकिन जब बात वोट कर के अपना हिसाब चुकता करने की आती है तो कहता है “वोट कहीं और डालना चाहते हैं, बटन किसी और का दब जाता है”। वैसे तो पूरे देश का यही हाल है लेकिन यूपी, बिहार, बंगाल में इसके स्पष्ट उदाहरण देखे जा सकते हैं-

उत्तर प्रदेश देश की राजनीतिक राजधानी कही जा सकती है क्योंकि यहीं से निश्चित होता है कि” अभी दिल्ली कितनी दूर है “। उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां पूरी मुस्लिम राजनिति एक बोटी गोश्त और पुलिस स्टेशन में एक कुर्सी पर टिकी है, मुस्लिम समाज की सोच इतनी छोटी है कि अगर किसी गै़र-मुस्लिम नेता ने ये कह दिया कि तुम जो चाहो करो, हम तुम्हारे साथ हैं, (हालांकि यह सिर्फ चुनावी स्टंट है) तो उस नेता के लिए मुस्लिम वोट आप कुल्हाड़ी से भी नहीं काट सकते,उनके समर्थन में मुस्लिम नौजवानों का उत्साह देखते ही बनता है।
विपक्ष में चाहे मुस्लिम लीडर हो या कोई और, आपका कोई महत्व नहीं, क्योंकि विश्वास तो सेक्युलर नेता जी पर है। मुस्लिम समाज अगर किसी तरह से राज्य स्तर के किसी मंत्री से ही मिल ले, तो ऐसा महसूस होता है कि उससे बड़ा कोई नेता ही नहीं।

हमारे यहां एक नेता जी ने कभी इसी प्रकार के मामले में थोड़ी सहायता कर दी थी, मुस्लिम समाज 7 या 8 बार इस एहसान का बदला चुका चुका है, लेकिन हमारे समाज के अनुसार अभी तक इसका एहसान अदा नहीं हुआ। जबकि कितनी बार यह स्पष्ट हो गया कि थाने में अपने क़रीबी से सुलह के लिए जिस कुर्सी पर बैठे थे उसके बदले इतना पैसा लिया गया कि पूरे थाने का फर्नीचर आ जाये। साथ ही आपके मुकाबले आपके शत्रु से बहुत कम पैसा लिया गया। इस बार तो साहब ने साफ कह दिया कि गै़र-मुस्लिम आपको देखना ही नहीं चाहते, लेकिन अभी भी हमारे लोगों की भक्ति में कमी नहीं आई।

कुछ दिन पहले हमारे एक भांजे घर पर आए तो एक पूर्व मुख्यमंत्री जी के गुणगान किये जा रहे थे। मोबाइल में भी इसी प्रकार के पचासों वीडियोज़ थे, जब हम से नहीं रहा गया तो हमने मंत्री जी के एहसान गिनाना शुरू किये। जवाब तो नहीं था अंत में यह बोले कि “कम से कम उनके शासनकाल में बिरयानी तो मिलती रहती है और थाने में कुर्सी भी मिल जाती है”। उनके इस वाक्य पर हमें ये पंक्तियाँ याद आ गईं –

“सच है एहसान का भी बोझ बहुत होता है।
चार फूलों से दबी जाती है तुरबत मेरी” (तुरबत=क़ब्र)

यह एक छोटा सा उदाहरण इस लिए प्रस्तुत किया है कि उच्च स्तरीय राजनीति तो छोड़िए, हमारे यहाँ निम्नतम की यह स्थिति है कि ग़ुलामी तो पसंद है, लेकिन अपने लोगों की श्रेष्ठता नहीं।

यू.पी. के राजनीतिक दल और मुसलमान

उत्तर प्रदेश में 75 सीटें मुस्लिम बाहुल्य हैं, जबकि 150 सीटें सीधे तौर पर मुस्लिम वोट से प्रभावित होती हैं। 30 से 40 सीटों पर मुसलमान अपने दम पर किसी को भी सफलता दिला सकते हैं। लेकिन इन सभी सीटों पर कुछ को छोड़कर सदैव गै़र-मुस्लिम ही जीतते हैं। जबकि मुस्लिम उनके क्षेत्रों में कभी सफल नहीं होते और न ही टिकट दिया जाता है।

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल कितने चालाक हैं कि अपने क्षेत्रों से भी स्वयं जीतते हैं और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में भी अपने ही प्रत्याशी लाते हैं। और हम मूर्खों की तरह उनका सपोर्ट कर रहे होते हैं।
अगर कोई अपना भाई निर्दलीय या किसी मुस्लिम पार्टी से क़िस्मत आज़माने की सोचता है, तो हमारा समाज ही गला दबा देता है और जब ज़ुल्म होता है तो फिर रोते हैं ।
लेकिन चुनाव के समय वही भक्ति फिर से जोश मारती है और परिणाम यह होता है कि जाली मसीहा विजय होकर दुबारा ज़ुल्म की नई दास्तान लिखता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में अगर हम तथाकथित सेक्युलर पार्टियों को भी वोट दें लेकिन साथ ही अपने नेतृत्व को भी 20 से 30 सीटों पर कामयाब करें तो हम सेक्युलरिज़्म भी बचा लेंगे और अपना नेतृत्व खड़ा करके अपने अधिकार भी प्राप्त कर लेंगे।

बुनकर भाइयों का बिजली बिल ऐसे अदा होता है

पूरे उत्तर प्रदेश में तीन-चार हजार मदरसों और इतने ही उर्दू शिक्षकों की नौकरी के अलावा किसी राजनीतिक दल का कोई काम नहीं है। जबकि दंगों की सूची बहुत लंबी है। एक तरफ हमारा ख़ून बह रहा होता है तो दूसरी तरफ फिल्मी अभिनेत्रियों के ठुमकों पर नोटों की बारिश हो रही होती है। हमारी क़ौम ने जिन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी थमाई उनका एक बड़ा एहसान यह भी है कि किसी समय में हमारे बुनकर भाईयों का बिजली बिल कम कर दिया था। आज तक मुस्लिम समाज समझता है कि अभी हक़ अदा नहीं हुआ। जबकि हमने जिसे कुर्सी पर बिठाया उसने अपने समुदाय को धरातल से आकाश की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया। जब वे सत्ता में होते हैं तो सभी ज़िलाध्यक्ष उनके समुदाय के होते हैं। सभी डीएम, एसपी, थाना प्रभारी उनके समुदाय के होते हैं। जितना बिजली बिल कम किया था उस से हज़ार गुना हम पर टैक्स लगाकर, रिश्वत लेकर, मुकदमों में फंसाकर और हमारे बच्चों को जेल में डालकर हम से सुलह के नाम पर सूद समेत वसूल कर लेते हैं और हम समझते हैं कि ये मसीहा हैं।
चाकू खरबूज़े पर गिरे या खरबूज़ा चाकू पर, कटना तो खरबूज़े को ही है। हमारी क़ौम आज तक यह नहीं समझ सकी कि शुभचिंतक कौन है ? इन राजनीतिक दलों ने हम पर कोई एहसान नहीं किया बल्कि हमने उन पर एहसान किया और यही लोग वादा करके मुकर गए। वादा था साथ लेकर चलने का, बराबरी का, हिस्सेदारी देने का, ख़ून-ख़राबा, हत्या, लूट-खसोट से छुटकारा दिलाने का, परन्तु मिला क्या वह सब पर स्पष्ट है।

यदि आप व्यवसाय कर रहे हैं, तो बिल का भुगतान करने में ज़्यादा परेशानी नहीं होनी चहिए। वैसे भी उत्तर प्रदेश में कितने घंटे बिजली आती है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। वे अपने बच्चों को उच्च शिक्षा उच्च स्तरीय नौकरियाँ दिलवाएं, हर जगह उनको फिट करें, हर तरह से उनके विकास का मार्ग निकाले, और आप सिर्फ इस बात पर खुश हैं कि बिजली का बिल कम आ रहा है, तो इसे मानसिक मंदता ही कहा जायेगा। अपने निजी हित के लिए समाज के हितों को नज़र अंदाज़ करना कहां की बुद्धिमानी है ?
सच पूछिए तो निजी लाभ भी आपको नहीं मिल रहे, हां दिखावे के लिए थोड़ी सी छूट कह सकते हैं लेकिन सत्य वही है जो ऊपर व्याख्या की गई।

उलमा ज़िम्मेदारियां उठायें

जब समाज इस प्रकार पतन का शिकार हो और कोई सही मार्गदर्शक भी न हो, तो धार्मिक गुरुओं की ज़िम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। धर्म गुरुओं ने हमेशा समय की सभी ज़रूरतों को पूरा किया है।और उनके स्वरूप ही समाज को सही मार्ग दिखाया है आज ज़रूरत है कि राजनीतिक स्तर पर भी समाज को संगठित करें । यह भी एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक, धार्मिक कर्तव्य है। गिरती मस्जिदों, हिंसक भीड़ से होने वाली हत्याओं, शरीअ़त पर लगातार हो रहे हमलों को अगर रोकना है तो राजनीति के बिना संभव नहीं है। आप राजनीति में नहीं आएं लेकिन मस्जिदों, आम सभाओं और निजी सभाओं में इस मुद्दे पर बात करके समाज का सही मार्गदर्शन कर सकते हैं।
यदि आप नहीं समझ पा रहे तो इस दिशा में सक्रिय उलमा और विद्वानों से संपर्क कीजिए और समाज को समझाने की कोशिश कीजिए। वर्तमान परिस्थितियों में ये बात लोगों को बड़ी आसानी से समझ आ जायेगी , आवश्यकता है कोशिश करने की।

अनुवादक: हसन क़ादरी, मधुबनी बिहार

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