मुहम्मद ज़ाहिद अली मरकज़ी कालपी शरीफ़
अध्यक्ष: तहरीक उलमाए बुंदेल खंड
सदस्य: रोशन मुस्तक़बिल दिल्ली
हमारे अक्सर मुस्लिम भाई यह समझते हैं कि मुस्लिम नेतृत्व को समर्थन करने से कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि उनकी सरकार तो बनना नहीं है, इसलिए वोट बर्बाद न किया जाए – क्या आपने कभी सोचा है कि 403 सीटों वाली देश की सबसे बड़ी विधानसभा में 50 से 60 मुस्लिम विधायक होते हुए भी आपके कार्य और आप के समाज के कार्य क्यों नहीं होते ?
कारण साफ है कि पार्टी इसकी आज्ञा नहीं देती है। अगर आप बिना आज्ञा कुछ भी करते हैं तो पार्टी आपको डॉ. मसूद, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, गुलाम नबी आज़ाद और उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल श्री अज़ीज़ कुरैशी की तरह निकाल कर बाहर फेंक देगी। हालांकि विधानसभा में पचास या साठ मुस्लिम विधायक होते हैं, लेकिन मुंह में ज़बान नहीं रखते, और अगर मुंह खुलवाना है तो फिर
सोने की कैंची लाओ कि मुनसिफ का मुंह खुले
क़ातिल ने होंठ सी दिये चांदी के तार से
वास्तव में वे विधायक पार्टी के होते हैं, यानी उन्हें *”राजनीतिक कम्युनिस्ट” *(नास्तिक)* कह सकते हैं क्योंकि उनकी राजनीतिक आस्था, पार्टी के नियम हैं, न वे ठीक से हिंदू हैं न मुस्लिम हैं ।
इसीलिए आपकी आवाज़ नहीं उठा सकते, इसी कारण न आपको आरक्षण मिलता है न नौकरियां मिलती हैं, ना ही जेलों में बंद आप के बेकसूर मुस्लिम युवाओं और नेताओं को ज़मानत मिलती है वरना सैकड़ों नेता ऐसे हैं जो कि सर से पांव तक मुकदमों के मलबे में दबे हैं। लेकिन वे खुले घूम रहे हैं न उनकी बिल्डिंगों को गिराया जाता है और न ही उनकी संपत्तियों को जब्त किया जाता है।
दो चार विधायकों से क्या होगा ?
कल्पना कीजिए कि अगर उपरोक्त संख्या से आधी संख्या में भी हमारे अपने नेतृत्व के विधायक हों, तो हमें आरक्षण से लेकर वह सारी सुविधाएं और अधिकार मिलें जो कि विशेष सामाज को मिलते हैं ।
लेकिन हम ऐसा नहीं चाहते, हम दूसरों को मसीहा मानते हैं, याद कीजिए अगस्त 2003 में, मुलायम सिंह यादव ने सरकार बनाई। किसी पार्टी के पास बहुमत नहीं था। पहले मायावती ने भाजपा के साथ सरकार बनाई। फिर कुछ महीनों के बाद गठबंधन टूटा और मुलायम सिंह ने दूसरे विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाई। इस सरकार में हर वह विधायक मंत्री बना था जो बाहर से आया था , इस प्रकार कुल 97 मंत्री बने और सबने अपने अपने फ़ायदे हासिल किये थे । अगर हमारे पास बीस विधायक हों और बहुमत किसी पार्टी को न मिले तो हम जो चाहेंगे वह मिलेगा
बिहार में देखें तीन और चार विधायक वाली पार्टियां उपमुख्यमंत्री बनी हुई हैं, वहीं मजलिस तेलंगाना और मुस्लिम लीग केरला में कुछ विधायकों से ही प्रभाव बनाए हुए हैं ।
यह अपना नेतृत्व और चार विधायकों का फायदा है, लेकिन मुसलमान समझते हैं कि चार से क्या होगा ? अगर किसी तरह बिहार में राजद की सरकार बनती तो मजलिस को भी वह सब मिलता जो हम और वीआईपी को मिल रहा है, और भविष्य में ऐसा ज़रूर होगा।
अपना नेतृत्व ही धर्मनिरपेक्षता का सहारा है
आज कहने को पार्टियां धर्मनिरपेक्ष हैं, लेकिन हम सभी जानते हैं कि वे कितने धर्मनिरपेक्ष हैं, मायावती मेरठ में सिर्फ़ इसलिए अपना वोट बीजेपी को ट्रांसफर करा देती हैं, ताकि कोई मुसलमान न जीत सके, और इस बात का खुल्लम खुल्ला इक़रार भी करतीं हैं । समाजवादी पार्टी में ऐसे नेता शामिल हैं जो मुस्लिम महिलाओं को क़ब्र से निकाल कर बलात्कार करने की बात करते हैं , कोई परशुराम की मूर्ति हर ज़िले के मुख्य गेट पर बनवाने की बात करता है तो कोई हर मुस्लिम मुद्दे पर बीजेपी के साथ नज़र आता है , यह कितने धर्मनिरपेक्ष हैं यह तो हम रोज़ाना देखते हैं , वास्तव में उन्हें धर्मनिरपेक्ष रखना है तो हमें अपने नेतृत्व पर ध्यान देना होगा। अभी, वे धर्मनिरपेक्ष प्रतीत होते हैं, लेकिन वे धर्मनिरपेक्ष तभी रहेंगे जब उनकी बागडोर हमारे हाथ में होगी।
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि हम सफल होते हैं, तो हम तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों के साथ जाएंगे, यानी हम एक धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने में अपनी भूमिका निभा कर देश और प्रदेश को विकास के पथ पर ले जा रहे होंगे, इस प्रकार धर्मनिरपेक्ष दलों ही की सहायता होगी, चाहे वह समाजवादी हो या कोई और पार्टी। अभी मुस्लिम वोट बिखरा हुआ है जब हम कुछ सीटों पर खुले तौर पर घोषणा करेंगे कि हम इन सीटों पर मुस्लिम नेतृत्व चाहते हैं। हम बाकी में धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ हैं। तो काफी कुछ बदलेगा।
अब या तो धर्मनिरपेक्ष दल वहां अपना मजबूत उम्मीदवार नहीं उतारेंगे या उतारें तो फिर पूरे प्रदेश में उन्हें मुस्लिम मतदाता खारिज कर दें, जितना भी वोट कटेगा नुकसान उन्हीं के सेकुलर पार्टियों का होगा । यह भी हो सकता है कि 15 से 20 सीटों का गठबंधन हो जाए ,अगर ऐसा होता है तो ओर बेहतर होगा , कहने का मतलब यह है कि हमें हर तरह से लाभ है खोने को कुछ भी नहीं है और पाने करने के लिए बहुत कुछ है।
कितनी सरल बात है कि हम 150 मुस्लिम सीटें जिन में मुस्लिम निर्णायक भूमिका मे हैं उन सीटों में से केवल 20 चाहते हैं। अब अगर इतना भी तथाकथित सेक्युलरिज्म के पुजारी हमे नहीं दे सकते तो हम धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ क्यों जायें?। और हमे समझ जाना चाहिए कि
जितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गये
मुस्लिम नेतृत्व एक झटके में खड़ा हो सकता है।
मुसलमान इरादा बना लें कि हमें ऐसा ही करना है, 403 में से हमें केवल 20 सीटों पर एकजुट होना है कोई नेता इससे इनकार नहीं कर सकता कोई भी धर्मनिरपेक्ष आपको नीचा नहीं दिखा सकता हर जगह विरोधी आपकी इस मांग पर चारों खाने चित होंगे , समाज के पढ़े लिखे वर्ग और मौलाना लोगों को इसके बारे में सोचना होगा और अपने लोगों के मन को साफ करना होगा, यदि ये लोग समझते हैं, तो इसे बहुत आसानी से सब को समझाया जा सकता है और लोग समझ भी जायेंगे।
हज़ारों परेशानीयों का एक ही हल है , बड़े से बड़ा घाघ भी आपके इस फार्मूले का काट नहीं कर सकता एक बार इस शहद का स्वाद चख लिया तो फिर कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।