जुड़ोगे तो बचोगे !
अफ़सर अली और अंकुर नेहरा को गुर्दे की बीमारी थी। बीमारी के कारण दोनों की किडनियां फेल हो चुकी थीं। अफ़सर के भाई अकबर अली ने अपने भाई की जान बचाने के लिए अपना गुर्दा अफ़सर को देना चाहा लेकिन अफ़सर से उनका गुर्दा मैच नही हुआ। उधर अंकुर की मां अनीता ने अपने बेटे की जान बचाने के लिए अपना गुर्दा देना चाहा लेकिन वो भी मैच नहीं हुआ। डॉक्टरों ने बताया कि अनीता का गुर्दा अफ़सर को लगाया जा सकता है, अनीता गुर्दा डोनेट कर सकती है। वहीं अंकुर को अकबर का गुर्दा लगाया जा सकता है, अकबर का गुर्दा ट्रांसप्लांट किया जा सकता है। और फिर ऐसा ही हुआ। अस्पताल के डॉक्टरों ने दोनों परिवारों को मिलाया इसके बाद दोनों परिवारों ने एक-दूसरे के परिजनों ने गुर्दे डोनेट करने पर हामी भर ली। दोनों परिवार के डोनर ने एक दूसरे को गुर्दा दे दिया और इस तरह दो ज़िंदगी बच गयीं, साथ में इंसानियत भी। यह घटना यूपी के मोदीनगर की है। यह भी संयोग ही है की आज के रोज़ यह घटना मीडिया में आई थी।
भारत की ज़मीन में ऐसी ही विविधता विद्यमान है। इस एकता को कुछ सियासी सौदागर “बंटोगो तो कटोगो” का राग अलाप कर ‘दूसरों’ से डराकर अपना राजनीतिक हित साधने काङ षडयंत्र कर रहे हैं, तो कुछ दिवाली पर फलाने से ही सामान ख़रीदने का आह्वान कर आपसी एकता को तोड़ने की जुगत में हैं। लेकिन समाज को तय करना है कि वो क्या चाहता है। समाज के समाज से तकाज़े हैं, इंसान के इंसान से तकाज़े हैं, भारतीय के भारतीय से तकाज़े हैं। और वो तकाज़े यही हैं कि संकट के समय आपके दरवाज़े पर दस्तक देने वाले की जात, धर्म, लिंग नहीं देखना, और जो यह सब देखने का दर्स दे उससे किनारा कर लीजिए। मुसीबत के वक्त ‘अंकुर’ की जान ‘अकबर’ बचा लेता है, और ‘अफ़सर’ की जान ‘अनीता’ बचा लेती है। बंटोगो तो कटोगे का राग अलापकर अपना हित साधने वालों से कहिए कि जुड़ेंगे तो बचेंगे। ऐसा हुआ भी है। महामारी के दौरान इंसान ही एक दूसरे के काम आए थे। जो आज बंटोगे तो कटोगे के हाॅर्डिंग्स लगा रहे हैं, ये लोग किसी ज़रूरतमंद को ऑक्सीज़न सिलेंडर तक मुहैय्या नहीं करा पाए थे।
लेख: वसीम अकरम त्यागी