ज़की तारिक़ बाराबंकवी
सआदतगंज, बाराबंकी
यारो क्यूँ बेख़ुदी मुझ पे छाती रही
किस की पुर कैफ़ सी याद आती रही
पास आई तो थी ज़िन्दगी सिर्फ़ अश्क
दूर जब तक रही मुस्कुराती रही
चल पड़ी बे वफ़ाई की इक आँधी ओर
प्यार के दीपकों को बुझाती रही
नाली का कीड़ा नाली में ही बस जिया
मख़मली फ़र्श मौत उस पे लाती रही
क्या उसे ज़ुल्म का अपने एहसास था
क्यूँ चराग़ों की लौ थरथराती रही
किस लिए कोई मंज़िल ये पाती भला
ज़िन्दगी ख़ाक थी ख़ाक उड़ाती रही
देखो तो मेरे मौला की क़ुदरत ज़रा
तीरा बख़्ती मेरी जगमगाती रही
एक के बाद इक मसअला हो गया
ज़िन्दगी बा रहा आज़माती रही
मैं ने इस के कभी नख़रे देखे नहीं
ज़िन्दगी ख़ुद मेरे नाज़ उठाती रही
ख़ुशनुमा ख़्वाब क्या देती ज़ालिम थी वो
सिर्फ़ नींदें हमारी उड़ाती रही