कई दिन से फेसबुक पर उस लड़की की वजह से एक ऊधम बरपा है….हर कोई उसे मज़लूम और लाचार साबित करने पर तुला है…
हालांकि…….
खुदकुशी करने वाला कितना ही मज़लूम और बेबस क्यूं ना हो….. किसी तौर पर क़ाबिले हमदर्दी नहीं हो सकता… क्यूंकि खुदकुशी इस्लाम में हराम है और हराम का इर्तिकाब करने वाले की हौसला शिकनी करनी चाहिए…..
कितनी मज़लूम थी?
कितनी लाचार थी?
कैसे हालात थे?
खातूने जन्नत फातिमा ज़हरा رضی اللہ عنہا से ज़्यादा मुश्किल हालात थे क्या?…. जिनके हाथ चक्की पीसने के सबब गट्टे पड़े थे- जिस्म पर मशकीज़े के निशान….
जिनकी हमनाम थी अम्मा आयशा सिद्दीक़ाرضی اللہ عنہا
से ज़्यादा उस पर इल्ज़ामात लग रहे थे जो सह ना सकी..
उम्माहातुल मोमिनीन के घर तो महीने भर चूल्हा भी ना जलता था…. यहां ज़रा सी मुश्किल आई नहीं और हम खुदकुशी करने पे फौरन आमादा हो जाते हैं…. क्यूंकि मुआशरा (समाज) ऐसे लोगों को हीरो बनाता है… मीडिया यही कुछ दिखाता और ज़हन बनाता है…
जब इंसान वही की तालीमात से महरूम हो जाए तो यही कुछ करता है…जो इस लड़की ने किया…
ज़िंदगी अल्लाह तआला की ना सिर्फ एक नेमत बल्कि हमारा पूरा जिस्म हमारे पास अमानत है…इसे हम अपनी मर्ज़ी से खत्म नहीं कर सकते…इस्लाम की तालीमात मुश्किलात का मुक़ाबला करना….मसाइबो आलाम में सब्र करना है… और अल्लाह तआला सब्र करने वालों के साथ होता है…
याद रखना मेरी बहनों कि कोई भी परेशानी आए तो सब्र करना इसका बदला दुनियां में नहीं मिला तो आखिरत में ज़रूर मिलेगा..वरना आखिरत की परेशानी इससे भी कहीं बढ़कर हो सकती है जिसका तसव्वुर भी मुश्किल है
कुछ भी हो जाए लेकिन खुदकुशी ना करना
याद रखना ये जान खुदा ए पाक की अमानत है
अफसोस है आयशा की अक़्ल पर कि एक मर्तबा शौहर ने कहा तो उसके कहने से जान दे दी-
लेकिन वालिदैन हाथ जोड़कर रो रो कर अपनी बेबसी से खुशामद करते रहे लेकिन एक नहीं सुनी- जिसकी मुहब्बत हक़ीक़त थी उसकी बात नहीं मानी और जिसको मुहब्बत नहीं नफरत थी उसके लिए जान निछावर कर दी…
अफसोस सद अफसोस…..!!