गोरखपुर

इमाम हुसैन की कुर्बानी को कभी नहीं भुलाया जा सकता: उलमा किराम

  • जिक्र-ए-शोहदा-ए-कर्बला महफिलों का समापन

गोरखपुर। पहली मुहर्रम से शुरु हुई ‘जिक्रे शोह-दाए-कर्बला’ महफिलों का समापन दसवीं मुहर्रम शनिवार को कुल शरीफ की रस्म के साथ हुआ। फातिहा ख्वानी व दुआ ख्वानी हुई।

मरकजी मदीना जामा मस्जिद रेती चौक में मुफ्ती मेराज अहमद क़ादरी ने कहा कि मुहर्रम की दसवीं तारीख़ को पैग़ंबरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बेटी हज़रत फातिमा ज़हरा के आंखों के तारे इमाम हुसैन को दहशतगर्दों ने बेरहमी के साथ तीन दिन के भूखे प्यासे कर्बला के तपते हुए रेगिस्तान में शहीद कर दिया था।

मस्जिद फैजाने इश्के रसूल अब्दुल्लाह नगर में मुफ्ती-ए-शहर अख़्तर हुसैन मन्नानी ने कहा कि दहशतगर्दों ने इमाम हुसैन को यह सोच कर शहीद किया था कि इंसानियत दुनिया से मिट जाएगी लेकिन वह भूल गए कि वह जिस इमाम हुसैन का खून बहा रहे हैं, यह नवासे रसूल का है। जो दीन-ए- इस्लाम व इंसानियत को बचाने के लिए घर से निकले थे। इमाम हुसैन ने अपने नाना का रौजा, मां की मजार, भाई हसन के मजार की आखिरी बार जियारत कर मदीना छोड़ दिया। यह काफिला रास्ते की मुसीबतें बर्दाश्त करता हुआ कर्बला पहुंचा और अज़ीम कुर्बानी पेश की। जिसे रहती दुनिया तक नहीं भुलाया जा सकता।

गौसिया जामा मस्जिद छोटे काजीपुर में मौलाना मोहम्मद अहमद निजामी ने कहा कि हज़रत इमाम हुसैन ने पैग़ंबरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की उम्मत की खातिर शहादत कबूल की। कर्बला की जंग में हज़रत इमाम हुसैन ने संदेश दिया कि कि हक़ कभी बातिल से नहीं डरता। हर मोर्चे पर जुल्म व सितम ढ़ाने वाले बातिल की शिकस्त तय है।

बेलाल मस्जिद अलहदादपुर में कारी शराफत हुसैन कादरी ने कहा कि हज़रत इमाम हुसैन ने दीन-ए-इस्लाम व सच्चाई की हिफाजत के लिए खुद व अपने परिवार को कुर्बान कर दिया, जो शहीद-ए-कर्बला की दास्तान में मौजूद है। हम सब को भी उनके बताए रास्ते पर चलने की जरूरत है।

मुकीम शाह जामा मस्जिद बुलाकीपुर में मौलाना रियाजुद्दीन क़ादरी ने कहा कि इमाम हुसैन से लोगों के प्यार की सबसे बड़ी वजह यह थी कि वो दीन-ए-इस्लाम के आखिरी नबी के नवासे थे और मिटती हुई इंसानियत को बचाने के लिए जुल्म के खिलाफ निकले थे।

सुन्नी बहादुरिया जामा मस्जिद रहमतनगर में मौलाना अली अहमद ने कहा कि मुहर्रम की दसवीं तारीख को हज़रत सैयदना इमाम हुसैन व आपके जांनिसारों ने मैदान-ए-कर्बला में तीन दिन भूखे-प्यासे रह कर दीन-ए-इस्लाम के तहफ्फुज के लिए जामे शहादत नोश फरमा कर हक़ के परचम को सरबुलंद फरमाया। हज़रत इमाम हुसैन और यजीद के बीच जो जंग हुई थी वह सत्ता की जंग नहीं थी बल्कि हक़ व सच्चाई और बातिल यानी झूठ के बीच की जंग थी।

अन्य मस्जिदों व घरों में भी हज़रत सैयदना इमाम हुसैन रदियल्लाहु अन्हु व उनके जांनिसारों की अज़ीम कुर्बानी को शिद्दत से याद किया गया। उलमा किराम ने जब कर्बला की दास्तान, इमाम हुसैन की कुर्बानी सुनाई तो अकीदतमंदों की आंखें भर आईं। अंत में सलातो सलाम पढ़कर मुल्क में अमनो अमान की दुआ मांगी गई। शीरीनी बांटी गई।

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