जीवन चरित्र

हमारे पूर्वज छोटे सरकार उर्फ़ हज़रत हुसैन शाह वल्द सखी शाह रह०

लेखक: जावेद शाह खजराना (वंशज)

इंदौर के पूर्वी हिस्से में मौजा खजराना में एक ऊंचे मुक़ाम पर हजरत नाहरशाह वली की मशहूर और मारूफ रूहानी दरगाह है।

हजरत नाहर शाह वली के भतीजे और ख़ादिम-ए-अव्वल और ख़ादिम-ए-ख़ास छोटे सरकार की मजार उनके पहलू में मौजूद है।

खजराना जब से आबाद है। तब से यहां की सरजमीन पर वली अल्लाहों का आना~जाना जारी है। हजरत नाहर शाह वली के भाई हजरत सखी शाह और उनकी औलादों की बहुत से मजारातें यहां आज खजराना में है।

अज़ीब विडम्बना है कि वली अल्लाहों के वंशजों को
अपनी पहचान बताने के लिए सुबूत देना पड़ते है और जो
नव-मुसलमान है वो छाती पीट-पीटकर अंधभक्तों की तरह उनका तिरस्कार करते है । मजाक उड़ाते है फ़क़ीर/कटोरा कहकर हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं,
जबकि शाह हकीकत में सैयद और औलादें अली है।
हमारे बुजुर्गों ने जिन्हें कलमा पढ़ाया/सिखाया वो ही हमें घिंद भरी नजरों से देखते हैं। जाति के नाम पर चिढ़ाते है । नफरत करते है।

हाय अफ़सोस
एक जमाने में हमारी दरगाहें और तकिए (मदरसे) इस्लाम के गढ़ हुआ करते थे। जहाँ से इस्लाम फैलता था। जिनके बाप~दादाओं को हमने कलमा पढ़ाया वो आज खुद को इस्लाम का शेर समझ रहे हैं।

बल्कि हम तो आज भी फख्र से कह सकते है

“ऐसे बुजुर्गों से मिलता है हमारा शिज़रा
जिनके जूतों में कई ताज पड़े रहते हैं।”

इंदौर शहर में सबसे पहले कौन से वली तशरीफ़ लाए? इस बात का कोई तारीख़ी सुबूत अभी तक नहीं मिला जो किसी क़िताब में दर्ज हो। बहरहाल सारी बातें किदवंतीयों पर आधारित और बुजुर्गों से सुनी-सुनाई हैं।

लिहाजा हजरत नाहरशाह वली का किस्सा जरूर हजरत औरंगजेब रह0 के दौर से मिलता है। यानि सन 1658 ईस्वी के लगभग।

अब बात करते है ऐसी हस्ती की जिनकी मज़ार हमारी आंखों के सामने ही है। लेकिन आज तक जायरीनों को ये भी नहीं मालूम कि ये मज़ार किनकी है?
ये हजरत कौन थे?
कहाँ से आए ? और रिश्ते में हजरत नाहरशाह वली के क्या लगते थे?
क्या इनका किसी ऐतिहासिक दस्तावेज में कोई उल्लेख है? तो दोस्तो इन सब सवालों का जवाब मेरे पास मौजूद है।

दोस्तों आपने हजरत नाहरशाह वली की दरगाह के ठीक पास पूरब दिशा में लोहे की जाली के अंदर फोटो में दिखाई गई मज़ार जरूर देखी होगी। ये मज़ार हजरत नाहरशाह के भाई हजरत सखी शाह रह0 के बेटे हजरत हुसैन शाह की है।
नाम ना मालूम होने की वजह से जिन्हें लोग छोटे सरकार कहकर पुकारते है।

आपकी पैदाइश सन 1700 ईस्वी के आसपास
खजराना में ही हुई। आप हजरत नाहरशाह वली के भाई हजरत सखी शाह के बेटे है। आपके वालिद हजरत नाहरशाह वली की खिदमत करते थे। उनके इंतक़ाल के बाद इन्होंने दरगाह की खिदमत संभाली।

उस ज़माने में ये जगह भयानक जंगल के बीचोबीच मौजूद थी । जहाँ जंगली जानवर और शेर (नाहर) आया करते थे इसलिए हुसैन शाह दिनभर ख़िदमत करते और शाम ढले खजराना गाँव स्थित घर चले जाते।

मुग़ल बादशाह अली गौहर उर्फ शाह आलम द्वितीय ने सन 1779 ईस्वी में आपको दरगाह की देखभाल और चिराग़े के लिए 50 बीघा जमीन इनाम में दी। क्योंकि आपने उसके लिए दुआएं की थी जिसकी बदौलत उसे दिल्ली की गद्दी मिली। इसकी सनद भी है जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज है । जो इस बात की पुष्टि करता है कि आपकी मज़ार 243 साल पुरानी है। इस सनद में करीब 12 दूसरे बुजुर्गों के भी नाम दर्ज है जो सनद में गवाह बने।

हजरत हुसैन शाह के वालिद हजरत सखी शाह की मज़ार खजराना के पाटीदार मोहल्ला में रौनक अफरोज़ है।

मैं इन्हीं हजरत हुसैन शाह रह0 का वंशज हूँ।
मेरी नानी इनकी औलादों में से थी।
हजरत हुसैन शाह वल्द सखी शाह के इंतक़ाल के बाद इनके बेटे जमाल शाह ने दरगाह की ख़िदमत संभाली।

सन 1860 ईस्वी में जमाल शाह के इंतक़ाल के बाद इनके बेटों जुम्मा शाह , भूरा शाह , रमज़ान शाह और जुगन शाह में दरगाह और जागीर बंट गई।

जमाल शाह के एक बेटे रमज़ान शाह मेरी नानी कुबरा शाह के दादाजी थे। जिन्हें सादी तालाब के सामने और उसके आसपास जागीर मिली। स्टार चौराहा से लगी जमीन उन्ही की थी।

जमाल शाह के बेटे जुगन शाह के हिस्से में नाहर शाह वली की दरगाह आई।
जुगन शाह का इंतक़ाल सन 1905 में हो गया।
जुगन शाह के बाद इनके बेटे मेहबूब शाह दरगाह के मुतवल्ली बने। इनकी देखरेख में ही खजराना उर्स की शुरुआत हुई।

मेहबूब शाह की दुआओं से इंदौर महाराजा यशवंतराव होल्कर की तबियत में सुधार हुआ था। इसी बात से खुश होकर महाराजा ने मेहबूब शाह के नाम 1946 में एक प्रशंसा पत्र लिखा। जो हमारे शाह परिवार और मेरे पास आज भी रखा हुआ है।

मेहबूब शाह का कोई बेटा नहीं हुआ
उनकी बेटी आयशा बेग़म की शादी मेरे दादा कुर्बान अली के चचेरे भाई नन्नू शाह वल्द गोटू शाह मानपुर वालों से होने के बाद दरगाह की ख़िदमत उन्हें मिली।

1957 में मेहबूब शाह का इंतक़ाल हो गया
उनका कोई बेटा नहीं होने और मेरे दादा नन्नू शाह को वारिस नहीं मानने पर विवाद हो गया। पारिवारिक झगड़े का फ़ायदा दूसरों को मिला। दरगाह की रिसिवरी फ़िल्म स्टार सलमान खान के बड़े अब्बा हलीम खान को मिल गई। अफ़सोस दरगाह 1967 से वक्फ बोर्ड के कब्जे में है। 55 साल से शाह समाज अपने मालिकाना हक से महरूम है।

सन 1967 के बाद हमारे रिश्तेदार जो दरगाह के वारिस और ख़ादिम-ए-ख़ास है । अपना मालिकाना हक पाने के लिए अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं।

मेहबूब शाह के भाई सुब्हान शाह दरगाह के रिसीवर हलीम खान के अंडर में कुछ बरसों यहाँ की मुजावरी करते रहे । सुब्हान शाह 1979 में फौत हो गए।
दरगाह मुजावरी का सिलसिला सुब्हान शाह के बेटे मुख्तयार शाह मामू पर 1995 में जाकर खत्म हो गया। दरगाह की खिदमत का सिलसिला जो 250 सालों से जारी था लगभग टूट गया।

250 साल पीढ़ी-दर-पीढ़ी दरगाह की ख़िदमत और मुजावरी करने वाले शाह परिवार में से 1995 से लेकर 2018 करीब 22 साल तक कभी कोई ख़ादिम-ए-ख़ास नहीं बन सका या जानबूझकर बनाया नहीं गया।

सन 2018 में मानो करिश्मा हुआ
हजरत हुसैन शाह के वंशजों का सिलसिला फिर चल पड़ा। सन 2018 में मेरी नानी के छोटे भाई मासूम शाह वल्द रोशन शाह वल्द रमज़ान शाह वल्द जमाल शाह वल्द हुसैन शाह वल्द सखी शाह रह0 कुछ अर्से के लिए हजरत नाहरशाह वली दरगाह के ख़ादिम-ए-ख़ास बने और किस्मत की बात नाहरशाह वली दरगाह के सहन में ही खिदमत करते हुए उनका इंतक़ाल हो गया।

ख़ैर हजरत नाहरशाह वली के भतीजे हजरत हुसैन शाह आज भी नाहरशाह वली के पास आराम फरमा रहे है। हम उनके वंशज इस इंतज़ार में है कि कभी तो हज़रत नाहरशाह वली की नाराजगी हमसे दूर होगी और उनका करम हमारे शाह परिवार पर होगा।

जिन वलियों से सब दुआ मांगते है।
उनकी मज़ारों पर अक़ीदत के फूल और चादर पेश करते है। उनके वसीले से अल्लाह को राजी करते है। दूसरी तरफ उनकी औलादों को फकीर /कटोरा /भिखारी कहकर बेइज्जत करते है। अल्लाह ऐसे लोगों को इल्म से नवाजे ताकि उन्हें पता चले कि शाह हकीकत में सैयद होते हैं।

नानी की तरफ से मेरा शिजरा
जावेद शाह खजराना बिन तारा अली बिन्ते कुबरा शाह बिन रोशन शाह बिन रमज़ान शाह बिन जमाल शाह बिन हुसैन शाह रहमतुल्लाह अलैह……

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