लेखक: जगदीश सिंह, सम्पादक
एक दिन शिकायत तुम्हे वक्त से नहीं खुद से होगी! कि जिन्दगी सामने थी और तुम दुनियां मे उलझे रहेे!
जीवन चक्र का अनवरत अबाध गति से शनै: शनै: आगे बढ़ते रहना प्रकृति प्रदत्त नियम है! इसमें न कहीं अवरोध है! न बिरोध है!आज के मतलबी संसार में जहां कोई नही अपना है! फिर भी माया के महाकाल में उलझा इन्सान अपना सर्वस्व बलिदान कर भी सकून नहीं पा रहा है। हर तरफ मौत मुस्करा रही है! सबको पता है साथ कुछ नहीं जायेगा! फिर भी मानव स्वभाव के चलते सब अपने है उनके सुख दुख का दायित्व का वहम पाले सारा निकृष्ट कर्म तब तक करता है जब तक उन्ही अपनों से आखरी सफर में ठोकर नहीं लग जाती है।ज्ञानचक्षु तब खुलते जब सब कुछ दुसरे के भरोसे हो जाता है?।सदियों से चले आ रहे इसी संस्कार में संसार का मर्म तत्त्व निहीतहै।और मानव समाज इसी के शानिध्य में आज भी जीवित हैं।बदलता समाज आज एकाकी जीवन को तवज्जह दे रहा है। स्वार्थ के वशीभूत अपने पराये का भेद कर रहा है!वर्तमान समाज जिस तरह से बदल रहा है। जिस मिशन पर चल निकला है! उसमें सबसे अधिक तबाही मां बाप को झेलना पड़ रहा है। बीबी बच्चा खुद को परिवार मानने का रिवाज आज खूब प्रचलन मे है।प्यार दुलार, आदर, सत्कार, केवल ससुराल तक सीमित हो गया है। जिसने सब कुछ किया जीवन के हसीन पल को नसीब कराने में जिसने अपने जीवन को आग में तपाकर खुशियों का सौगात दिया वह आज बेकार हो गया? भाई बहन मां बाप का रिश्ता पट्टीदार का हो गया!क्या जमाना आ गया है दोस्तों? भरे पुरे संयुक्त परिवार में बिरानी है! जो घर का मुखिया था आखरी समय मे ना समझ हो गया! बस नई बहूरिया बन गई ज्ञानी है।यह तो सबको पता है आज जो बो रहे हो वह काटना भी पड़ेगा! जो रिश्तों के बीच खाई खोद रहे हैं उसे पाटना भी पड़ेगा! लेकिन तब तक सब कुछ खतम हो जायेगा! पूरा जीवन अभिषप्त हो जायेगा?अपना कहने वाला कोई नहीं होगा? पहले हाई प्रोफाईल सोसाइटी में यह रोग पनपा अब इसका असर करोना के तरह घर घर हो गया है। पुरातन भारतीय संस्कृति का सनातनी सूत्र इस प्रदुषण भरे वातावरण के आवरण में पल रहे आधुनिक कहे जाने वाले मानव समाज के परिवेश में खो गया है। शहर आबाद हो रहे हैं! गांव विरान होते जा रहे हैं।जो घर से एक बार बाहर गया वहीं का होकर रह गया? कभी आया तो पहचान बदल गयी!संयुक्त परिवार से बना पुरखो की शान! अपना खानदान!सब दरकिनार हो गया!तेजी से बदलते समाज का आगाज ही बेईमानी का शानिध्य पाकर बिरानी का वातावरण बना रहा है।अपने ही घर में घर का मुखिया तन्हाई का शिकार हो रहा है। कितनी बड़ी बिडम्बना है! कितना दुरुह पथ है जीवन का! की न चाहकर भी इस अथाह नश्वर संसार में अपनों के सुख दुख लिये हर आदमी परेशान है!रोज देख रहा है मतलब परस्ती का खेला! उसे पता भी है आखरी सफर कटेगा अकेला! फिर भी जिन्दगी के अनन्त सफर तक जाने के पहले तक माया के बाहु पास में जकड़ा रहता है! सब कुछ तो बदल गया रहन सहन बोल चाल नाता रिश्ता! आने वाला समय और भी विकृति से परिपूर्ण समाज का निर्माण कर रहा है। जिसमें सब कुछ धाराशायी होगा! कोई भी अपना नहीं होगा! हर रिश्ता ब्यवसाई होगा! न कोई मां बाप होगा न कोई भाई होगा? जमाना केवल लुगाई का होगा? वर्तमान ही स्वाभिमान को निलाम कर रहा है।समय से समझौता कर जो समह्लल गया उसका आखरी सफर भी शान्ति से श्मशान तक पूरा हो गया।जो मुगालता पालकर जिया कहीं का नहीं हुआ। जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारोंं!