मसाइल-ए-दीनीया

तरावीह का बयान (क़िस्त 5)

मसअला
हर दो रकअत के बाद दो रकअत पढ़ना मकरूह है यूंही दस रकअत के बाद बैठना भी मकरूह।
📚दुर्रे मुख़्तार
📚आलमगीरी

मसअला
तरावीह में जमाअत सुन्नते किफ़ाया है के अगर मस्जिद के सब लोग छोड़ देंगे तो सब गुनाहगार होंगे और अगर किसी एक ने घर में तन्हा पढ़ ली तो गुनाहगार नहीं मगर जो शख़्स मुक़तदा हो के उसके होने से जमाअत बड़ी होती है और छोड़ देगा तो लोग कम हो जाएंगे उसे बिला उज़्र जमाअत छोड़ने की इजाज़त नहीं।
📚आलमगीरी

मसअला
तरावीह मस्जिद में ब जमाअत पढ़ना अफ़ज़ल है अगर घर में जमाअत से पढ़ी तो जमाअत के तर्क का गुनाह ना हुआ मगर वो सवाब ना मिलेगा जो मस्जिद में पढ़ने का था।
📚आलमगीरी

मसअला
अगर आलिम हाफ़िज़ भी हो तो अफ़ज़ल ये है के खुद पढ़े दूसरे की इक़्तिदा ना करे और अगर इमाम ग़लत पढ़ता हो तो मस्जिदे मोहल्ला छोड़कर दूसरी मस्जिद में जाने में हर्ज नहीं यूंही अगर दूसरी जगह का इमाम खुश आवाज़ हो या हल्की क़िराअत पढ़ता हो या मस्जिदे मोहल्ला में खत्म ना होगा तो दूसरी मस्जिद में जाना जाइज़ है।
📚आलमगीरी

मसअला
खुश ख़वान को (अच्छी आवाज़ वाले को) इमाम बनाना ना चाहिए बल्के दुरुस्त ख़वान (अच्छा क़ुरआन पढ़ने वाले) को बनाएं।
📚 अलमगीरी

मसअला
अफ़सोस स़द अफ़सोस के इस ज़माना में हाफ़िज़ की हालत निहायत ना नगुफ्ता बा (निहायत ख़राब) है अक्सर तो ऐसा पढ़ते हैं कि
يعلمون تعلمون
यअलमून तअलमून, के सिवा कुछ पता नहीं चलता,
अल्फ़ाज़ व हुरूफ़ खा जाया करते हैं जो अच्छा पढ़ने वाले कहे जाते हैं उन्हें देखिए तो हुरूफ़ सही नहीं अदा करते।
ء، ا، ع، और, ذ، ز، ظ، और, ث، س، ص، ت، ط،
वग़ैरह हुरूफ़ में तफ़रक़ा नहीं
करते (यानी सही मख़रज के साथ नहीं पढ़ते) जिससे क़तअन नमाज़ ही नहीं होती (हुज़ूर सदरुश्शरिअह अलैहिर्रहमा फ़रमाते के फक़ीर को इन्हीं मुसीबतों की वजह से 3 साल ख़त्मे क़ुरआन मजीद सुनना ना मिला मौला अज़्ज़ा व जल्ल मुसलमान भाइयों को तौफ़ीक़ दे कि
ماانزل الله
पढ़ने की कोशिश करें।

मसअला
आजकल अक्सर रिवाज़ हो गया है के हाफ़िज़ को उजरत देकर तरावीह पढ़वाते हैं ये नाजाइज है देने वाला और लेने वाला दोनों गुनाहगार हैं, उजरत सिर्फ़ यही नहीं के पेश्तर (पहले) मुक़र्रर कर लें के ये लेंगे ये देंगे बल्के अगर मालूम है के यहां कुछ मिलता है अगरचे उससे तय ना हुआ हो ये भी नाजाइज़ है। कि: المعروف كا لمشروط
हां अगर कह दे के कुछ नहीं दूंगा या नहीं लूंगा फिर पढ़े और हाफ़िज़ की खिदमत करें तो इसमें हर्ज नहीं। कि: الصریح يفوق الدلالۃ

मसअला
एक इमाम दो मस्जिदों में तरावीह पढ़ाता है अगर दोनों में पूरी पूरी पढ़ाए तो ना जाइज़ है और मुक़्तदी ने दो मस्जिदों में पूरी पूरी पढ़ी तो हर्ज नहीं मगर दूसरी में वित्र पढ़ना जाइज नहीं जबके पहली में पढ़ चुका और अगर घर में तरावीह पढ़कर मस्जिद में आया और इमामत की तो मकरूह है।
📚आलमगीरी

मसअला
लोगों में तरावीह पढ़ ली अब दोबारा पढ़ना चाहते हैं तो तन्हा तन्हा पढ़ सकते हैं जमाअत की इजाज़त नहीं।
📚आलमगीरी

मसअला
अफ़ज़ल ये है के एक इमाम के पीछे तरावीह पढ़ें और दो के पीछे पड़ना चाहें तो बेहतर ये है के पूरे तरवीहा पर इमाम बदलें मसलन आठ.8, एक के पीछे और बारह.12, दूसरे के।
📚आलमगीरी

मसअला
नाबालिग़ के पीछे बालिग़ीन की तरावीह ना होगी यही सही है।
📚आलमगीरी

मसअला
रमज़ान शरीफ़ में वित्र जमाअत के साथ पढ़ना अफ़ज़ल है ख़्वाह उसी इमाम के पीछे जिसके पीछे इशा व तरावीह पढ़ी या दूसरे के पीछे।
📚आलमगीरी,
📚दुर्रे मुख़्तार,
📚बहारे शरिअत हिस्सा 4, सफ़ह 34—-35

लेखक
मुफ़्ती मुहम्मद ज़ुल्फ़ुक़ार ख़ान न‌ईमी
अब्दुल्लाह रज़वी क़ादरी

मुरादाबाद यू०पी० इंडिया

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