अबू शहमा अंसारी
बड़ेल,बाराबंकी। नगर के मोहल्ला बड़ेल में स्थित फ़ैज़ कामिल क़िदवई के आवास पर एक मुशायरे का आयोजन किया गया। मुशायरे की अध्यक्षता समाजवादी चिंतक तथा कारवाने इंसानियत के संस्थापक तारिक जिलानी ने की तथा संचालन काशिफ़ उस्मानी ने किया। इस अवसर पर शहंशाह ए ग़ज़ल स्वर्गीय ख़ुमार बाराबंकवी के पोते फ़ैज़ ख़ुमार का प्रतीक चिन्ह भेंट कर स्वागत किया गया। मुशायरा देर रात तक सफलतापूर्वक चला। मुशायरे का शुभारंभ तूफ़ैल इदरीसी ने नात ए पाक से किया।
डॉक्टर रेहान अलवी ने पढ़ा- यूं आग मेरे जिगर में लगा रही है हवा। नक़ाब रुख़ से जब उनका उठा रही है हवा।।
जो उनके जिस्म से टकराके आ रही है इधर।
वही तो होश हमारे उड़ा रही है हवा।।
फ़ैज़ ख़ुमार ने कहा-विरासत जो मुझको बड़ों से मिली है।
हिफ़ाज़त में उसकी किए जा रहा हूं।।
वक़ार काशिफ़ ने सुनाया – ज़मीं पे रिश्ता निभाना कमाल होता है। यहीं उरूज यहीं पर ज़वाल होता है।।
धीरज शर्मा ने कहा -जहां पे लोग मुख़ालिफ़ हमारे बैठे हैं।
वहीं से जीत का रस्ता दिखाई देता है।।
ज़ैद मज़हर ने सुनाया – पराए क्या हैं खुद अपना घराना भूल जाता है।
मुसीबत जब भी आती है ज़माना भूल जाता है।।
शाद बड़ेलवी ने कहा- चाहतों के फूल हों पास हो महबूब जब। फिर मज़ा कुछ और है इश्क में बरसात का।।
अब्बास काशिफ़ ने सुनाया- सभी को एक ही उलझन है अब ज़माने में।
वो मेरे क़द के बराबर है क्या किया जाए।।
ज़हूर फ़ैज़ी ने कहा – झूठ को सच अगर मुझको लिखना पड़े।
उससे पहले मैं अपना क़लम तोड़ दूं।।
इनके अलावा नफीस बाराबंकवी, साबिर नज़र अहमद पुरी, ज़ाहिद बाराबंकवी, शाहरुख़ मुबीन, रेहान रौनक़ी और तुफ़ैल इदरीसी ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। मुशायरे के अंत में शाद बड़ेलवी ने सभी श्रोता व कवियों के प्रति आभार प्रकट किया।