अकबर और राणा प्रताप दोनों साढ़ू थे, मानसिंह की एक बहन अकबर से ब्याही थी, दूसरी राणा प्रताप से
अकबर और राणा के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी
राणा अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए राजी थे
मुद्दा केवल इतना था कि अकबर 5 हजारी मनसब दे रहा था और राणा 10 हजारी मांग रहे थे ताकि दूसरे राजपूत राजाओं से खुद को बड़ा साबित कर सकें!
अकबर और राणा प्रताप की लड़ाई का इतिहास हमे ऐसे पढ़ाया जाता है जैसे कि अकबर और प्रताप आमने सामने लड़ रहे थे। राणा प्रताप के साथ लड़ाई हल्दी घाटी में हुई थी जहाँ अकबर कभी गया ही नही। अकबर की ओर से मान सिंह लड़ रहे थे, उनकी सेना में राजपूत सिपाही थे। राणा प्रताप के फ़ौज़ की कमान हकीम खान सूर के हाथ में थी जिनकी सेना में पठान और राजपूत दोनों थे।
तो क्या इस लड़ाई को हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई कहा जा सकता है जैसा कि हमे बताने की कोशिश की जाती है?
अकबर अपने राज्य का विस्तार कर रहे थे जिसमे सभी छोटी रियासतें शामिल हो रही थीं, ये कोई प्रेमसंबंध जैसा नहीं था बल्कि फौजी ताकत से किया जा रहा था। अकबर अपने मातहत राजाओं को पद भी देता था, राणा प्रताप को पांच हजारी का पद ऑफर किया गया था जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था लेकिन जब उनके पुत्र राणा अमर सिंह को अकबर के पुत्र जहांगीर ने दस हजारी का ओहदा दिया तो वे मुग़ल साम्राज्य में शामिल हो गए।
अब सोचिये कि प्रताप को राष्ट्रीय हीरो, राष्ट्र का प्रतीक और हिंदुत्व का प्रतीक बनाने और स्वतन्त्रता सेनानी बनाने का क्या औचित्य है? जबकि उस वक़्त देश या राष्ट्र की कोई कल्पना भी नहीं थी, सिर्फ मेवाड़ को देश या राष्ट्र कहना कहाँ तक उचित है.
और हां, मेवाण पूरा भारत नही है