साहित्यिक

ख़लील जिब्रान की एक लघुकथा: पागलख़ाना

पागलख़ाने के बाग़ में मैंने एक नौजवान को देखा जिसका ख़ूबसूरत चेहरा पीला पड़ता जा रहा था । जिस पर तहय्युर (हैरानी) की स्याही चढ़ी हुई थी । मैं उसके क़रीब जाकर बेंच पर बैठ गया और पूछा ……
“तुम यहाँ कैसे ?”

उसने हैरान होकर मेरी तरफ़ देखा और कहा ,
“यहां गरचे आपका सवाल बेमानी है, लेकिन आपने पूछा है तो, मैं जवाब दूंगा। “

फिर उसने कहना शुरू किया ……

“मेरे बाप की ख़्वाहिश थी कि मैं बिल्कुल हू-ब-हू उस जैसा बनूं और यही ख़्वाहिश मेरे चचा की भी थी । इसके बरख़िलाफ़ मेरी मां की आरज़ू थी कि मैं अपने मरहूम नाना के नक़्श-ए-क़दम पर चलूं । और मेरी बहन अपने मल्लाह शौहर को मेरे लिए बेहतरीन नमूना मानती थी । मेरा भाई चाहता था कि मैं और कुछ नहीं बस उसकी तरह एक नामी पहलवान बनूं । और यही हाल कम-ओ-बेश मेरे हर उस्ताद का था । फ़लसफ़े का उसताद फ़लासफ़र तो मौसीक़ी का उस्ताद गवैय्या और अदब का उस्ताद अदीब बनाना चाहता था वग़ैरह-वग़ैरह …

ग़रज़ की हर शख़्स अपने जौहर मेरे अंदर ठूंस देना चाहता था कि वह अपने हुनर मेरे अंदर यूं देखते जैसे कोई शख़्स आईने में अपनी शकल देखता है ।

मैं यहां इसलिए चला आया कि निसबतन यहां ज़्यादा सुकून है । कम से कम मैं यहां वह तो बन सकता हूं , जो मैं बना रहना चाहता हूं । फिर अचानक वह मुड़ा और मुझसे पूछा आप यहां कैसे पहुंचे ? ऊंची तालीम या अच्छी सोहबत हासिल करने के लिए ?”

“नहीं-नहीं मैं तो सिर्फ़ मुलाक़ाती हूं।”
मैंने उत्तर दिया।

उसने बड़ी हैरत भरी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा और बहुत पुरसुकून लहजे में बोला ,
“ओह अब मैं समझा। आप उनमें से हैं जो, इधर की दीवार के उस तरफ़ वाले पागलख़ाने में रहते हैं।”

समाचार अपडेट प्राप्त करने हेतु हमारा व्हाट्सएप्प ग्रूप ज्वाइन करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *