अ़वाम में ये तरीक़ा राइज है कि पहले खुतबे में अदबन निय्यत बाँधने की तरह हाथ बाँध लेते हैं और दूसरे खुतबे में अपना हाथ घुटनो पर रख लेते हैं, ये तरीका दुरस्त नहीं है।
मन्ज़ूरे नज़र हुज़ूर मुफ्ती -ए- आज़म, अल्लामा मुहम्मद सालेह कादरी लिखते हैं कि ये तरीका गलत और मनमानी रविश है, मुअतमद अलैह किताबो में इसका नामो निशान नहीं है, खुदा जाने कहाँ से चल पड़ा है, कैसे चालू हुआ है, इसकी भी इस्लाह (होनी) चाहिये।
बैठने की कैफियत तो किताबों में मज़कूर है कि बेहतर है कि खुत्बा सुनने की हालत में सामईन ऐसे बैठें जैसे नमाज़ के तशहहुद में बैठते हैं और ये भी कोई लाज़िम वाजिब नहीं मगर हाथों के बाँधने फिर खोलने की बाबत तो मुअतमद अलैह किताबो में कही कोई ज़िक्रो बयान नहीं मिलेगा तो लाज़िम है कि क्या इख्तिराई तरीके को छोडें लिहाज़ा हाथों को जैसे चाहें रखें, जब शरीअ़त ने ऐसा पाबंद नहीं किया है तो क्यों पाबंदी करते है?
मुसलमानों! शरीअत की पैरवी करो, अपनी ख़्वाहिश की पैरवी छोड़ दो वरना बे एतिदाली में पड़ने का खतरा है, अल्लाह से डरो, आखिरत की बाज़ पुर्स का खटका सामने रखो, किताबों से हट कर मत चलो, अल्लाह त’आला हिदायत दे। (मुंतखब फ़तवे, सफ़हा 53,54)
وھو الھادی وھو تعالی اعلم
अ़ब्दे मुस्तफा