गोरखपुर

माह-ए-रमज़ान में नाज़िल हुआ मुकद्दस क़ुरआन

गोरखपुर। माह-ए-रमज़ान का चौथा रोज़ा अल्लाह की फरमाबरदारी में गुजरा। मस्जिदों व घरों में खूब इबादत हो रही है। दस्तरख़्वान पर तमाम तरह की नेमत रोज़ेदारों को खाने को मिल रही है। हाथों में तस्बीह व सरों पर टोपी लगाए बच्चे व बड़े अच्छे लग रहे है। औरतें इबादत के साथ घर की जिम्मेदारियां बाखूबी अंज़ाम दे रही हैं। तरावीह की नमाज़ मस्जिद व घरों में पढ़ी जा रही है। रहमत के अशरे में छह दिन और बचे हुए हैं जिसके बाद मग़फिरत का अशरा शुरु होगा। माह-ए-रमज़ान का हर पल हर लम्हां कीमती है।

मौलाना बदरे आलम निज़ामी ने बताया कि माह-ए-रमज़ान के इस मुकद्दस महीने में क़ुरआन-ए-पाक नाज़िल (उतरा) हुआ। क़ुआन-ए-पाक का पढ़ना देखना, छूना, सुनना सब इबादत में शामिल है। क़ुरआन-ए-पाक पूरी दुनिया के लिए हिदायत है। हमें क़ुरआन-ए-पाक के मुताबिक बताए उसूलों पर ज़िदंगी गुजारनी चाहिए।

मौलाना शेर मोहम्मद अमजदी ने बताया कि अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ुरआन-ए-पाक 23 साल में नाज़िल हुआ। क़ुरआन-ए-पाक पर अमल करके ही दुनिया में अमन और शांति कायम की जा सकती है।

हाफ़िज़ आरिफ़ ने बताया कि माह-ए-रमज़ान में हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम पर सहीफे 3 तारीख को उतारे गए। हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम को जबूर (आसमानी किताब) 18 या 21 रमज़ान को मिली और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को तौरेत 6 रमज़ान को मिली। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को इंजील 12 रमज़ान को मिली। इस माह में क़ुरआन-ए-पाक भी उतारा गया, हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम हर साल रमज़ान में आते और रसूल-ए-पाक हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को क़ुरआन-ए-पाक सुनाते और हमारे रसूल-ए-पाक उनको क़ुरआन-ए-पाक सुनाते थे।

मौलाना शादाब अहमद रज़वी ने बताया कि माह-ए-रमज़ान में अल्लाह की छोटी-बड़ी बहुत सी किताबें नाजिल (उतरीं) हुई। बड़ी को किताब और छोटी को सहीफह कहते हैं। उनमें चार किताबें बहुत मशहूर है अव्वल तौरेत जो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर नाजिल हुई। दूसरी जबूर जो हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम पर नाजिल हुई। तीसरी इंजील जो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम पर नाजिल हुई। चौथी क़ुरआन-ए-पाक जो रसूल-ए-पाक हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर नाजिल हुई। पूरा क़ुआन-ए-पाक एक दफा इकट्ठा नहीं नाजिल हुआ बल्कि जरूरत के मुताबिक 23 वर्षों में थोड़ा-थोड़ा नाजिल हुआ। क़ुरआन-ए-पाक के किसी एक हर्फ लफ्ज या नुक्ते को कोई बदलने की कोशिश करे तों बदलना मुमकिन नहीं। अगली किताबें नबियों को ही ज़ुबानी याद होती लेकिन क़ुरआन-ए-पाक का यह मोज़जा है कि मुसलमानों का बच्चा-बच्चा उसको याद कर लेता है।

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