चुनावी हलचल राजनीतिक

अंसारी परिवार पर समाजवाद के डोरे

लेखक- मुहम्मद जाहिद अली मरकजी़ कालपी शरीफ।
चेयरमैन-तहरीक ए उलमा ए बुंदेलखंड।
सदस्य- रोशन मुस्तकबिल दिल्ली।

समाजवादी पार्टी में मुख्तार अंसारी के भाई सिब्गतुल्लाह अंसारी की के शामिल होने के बाद अब मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी के आने की नहीं चर्चा है। हालांकि सिब्गतुल्लाह साहब या किसी मुस्लिम लीडर की स्थिति वहां क्या है इस का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्टेज पर उपस्थित अखिलेश यादव नें अंसारी साहब का नाम लेना भी पसंद नही किया। सेकुलर पार्टियाँ इलेक्शन के समय में अपने मतलब और फाइदा देने वाले चेहरे तलाश कर रही हैं । इलेक्शन आते आते बहुत से मौलाना और राजनितिक प्रभाव वाले स.पा. के पाखंड के शिकार होंगे। अब देखना ये है कि ये गिनती कहां तक पहुंचती है।

मायावती और अंसारी परिवार

सन् 1996 में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर जीत हासिल कर पहली बार विधानसभा पहुंचनें वाले मुख्तार अंसारी ने सन् 2002 सन् 2007 सन् 2012 और सन् 2017 में मऊ से जीत हासिल की। आखिरी तीन इलेक्शन उन्होंने देश की विभिन्न जेलों में कैद रहते हुये लडे़। पूर्वांचल में अंसारी परिवार का प्रभाव किसी से छुपा नही है। कभी ब.स.पा. की मायावती ने मुख्तार अंसारी को सीढ़ी बना कर मुख्यमंत्री का पद हासिल किया, तो कभी स.पा. उन्हें अपनी सीढ़ी बना चुकी है।
अंसारी परिवार आज वहीं का वहीं बल्कि विनाश के कगार पर है।और मायावती कहां से कहां पहुंच गई ये बताने की जरूरत नहीं। मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी ने भी अपना राजनितिक कैरियर कम्युनिस्ट पार्टी से शुरू किया। फिर स.पा. में शामिल हो गये। उसके बाद उन्होने राष्ट्रीय एकता दल नाम की पार्टी बना ली और ब.स.पा. के साथ गठबंधन कर लिया। मुख्तार अंसारी को गरीबों का मसीहा कहने वाली राज्य की पुर्व मुख्यमंत्री और ब.स.पा. की अध्यक्ष मायावती ने सन् 2010 में दोनों भाइयों को ये आरोप लगा कर पार्टी से निकाल दिया कि वो अपराधों मे घिरे हुयें हैं, और अभी दो दिन पहले कह दिया कि पार्टी किसी बाहुबली को इलेक्शन नहीं लडायेगी।मायावती की बहुजन समाज पार्टी में माफ़िया मुख्तार अंसारी के लिए जगह नहीं है!

लेकिन बलात्कारी सांसद अतुल राय का पूरा सम्मान है और वह पार्टी मे हैं और। खैर ये उनकी पार्टी है जो चाहें करें।
सन् 2017 में चुनाव से पहले ये कह कर उनकी पार्टी ‘राष्ट्रीय एकता दल’ को ब.स.पा में वापस शामिल कर लिया।कि न्यायालय में उनके खिलाफ कोई भी जुर्म साबित नहीं हुआ। अंसारी परिवार की लोकप्रियता और ताक़त का सभी अराजनीतिक दलों ने फाइदा उठाया है और अपने फायदे के हिसाब से ही यह भी तय किया जाता रहा है कि कब यह परिवार गुंडा है और कब संस्कारी।
जरूरत पड़ती है तो परिवार शरीफ बना लिया जाता है और जरूरत निकल जाती है तो ये परिवार गुंडा मवाली बना दिया जाता है।

इस संक्षिप्त लेख से आपको मालूम होगया होगा कि इस परिवार की राज्य और खासकर पूर्वांचल में क्या स्थित है और ये भी समझ आगया होगा कि इस परिवार के जरिये मुख्यमन्त्री की कुर्सी तो हासिल की गई लेकिन उसे एेसा कुछ नही मिला जिससे उन्हें फायदा पहुँचे। पिछले 15 सालों से जेल मे बंद मुख्तार अंसारी के लिए किसी राजनितिक पार्टी ने कुछ नहीं किया । अब जब चुनाव का समय है तो एक बार फिर ये परिवार राजनीति की शतरंजी चालों में फंसाया जा रहा है, लेकिन इस परिवार को कुछ भी हासिल नहीं होगा।

अखिलेश को क्या जरूरत पड़ गई?

उत्तर प्रदेश का चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहा है अखिलेश की परेशानिया बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ सत्ताधारी भाजपा का मुखर हिन्दुत्व है तो दूसरी तरफ अखिलेश की कमजोर राजनीति। अखिलेश का कहना है कि हम गुंडों से पाक पार्टी चाहते हैं। लेकिन अब क्या हुआ? जिन्हें गुंडा मानते थे आज उन्हीं की पार्टी में वापसी हो रही है। बात यह है कि आजम खाँ के साथ सौतेला व्यवहार और अबू आसिम आजमी की अनुचित इंट्री से सपा को जबरदस्त नुकसान तो पहुंची ही है साथ ही अखिलेश का मुस्लिम मामलात से बिल्कुल अलग हो जाना और फिर पंचायत चुनाव में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की भाजपा की ओर से जमकर पिटाई ने अखिलेश को परेशान कर दिया है।
बड़े दबंग माने जाने वाले सपाई कागज के शेर बन कर रह गये हैं। अखिलेश को एक ऐसे चेहरे की आवश्यकता थी जोकि भाजपा कार्यकर्ताओं के हमले से बचा सके।अंसारी परिवार के पास वह जिगरा और चेहरा है कि जिनके सामने बड़े बड़े शूरवीर भी आने से घबराते हैं। यही कारण है कि अंसारी परिवार से प्यार दिखाया जा रहा है लेकिन इसबार मुसलमान भी होशियार हैं कुछ भी हो सकता है।

अवैसी और अंसारी परिवार बन सकते हैं बडी़ ताकत

अंसारी परिवार सपा और बसपा के साथ अपना अंजाम देख चुके हैं। और खुद अपनी पार्टी बना कर भी अनुभव कर चुके हैं। दोनों पार्टियों ने खूब उपयोग किया और हासिल कुछ न हुआ। ऐसे में अगर मजलिस और अंसारी परिवार एक हो जाते हैं तो पूर्वांचल में एक बडी़ ताकत जरूर होंगे । जाहिर है कि भाजपा का सीधा मुकाबला सपा से है लेकिन सपा की हालत खुद ही बुरी है। बहुत सी छोटी पार्टियों नें अपनें अपने तरीके से तैयारियां की हैं अगर वह सपा के साथ जाते हैं तो कुछ हद तक ठीक है वर्ना चुनाव आते आते बहूत सी पार्टियँ भाजपा के साथ होंगी। मजलिस और अंसारी परिवार अगर एक हो जायें तो मुसलमानों का भरोसा भी बढ़ जाए और मुसलमानों की ताकत भी दिखने लगे।
लेकिन अंसारी परिवार यह सोच रहा है कि हमें सपा के विजयी होनें से लाभ होगा। ऐसा सोचना इसलिए भी बेकार है कि 2012 से 2017 तक अखिलेश यादव ने मुसलमानों को ठिकाने ही लगाया है और अब भी यही होगा। यह सिर्फ जीतने तक ही आपके साथ हैं। जीतने के बाद ही अंसारी परिवार से दूरी बना लेंगे।
(अतीक अहमद के मजलिस मे शामिल होने से मजलिस की ताक़त बढ़ी है और अब अगर अंसारी परिवार आता है तो बहुत कुछ बदलेगा)
जो आजम खाँ के साथ नहीं और मुस्लिम मामलात में पिछले पाँच साल से चुप हो, जो अपनी पार्टी के सदस्य की खबर भी न लेता हो वह आप से कितना वफादार हो सकता है ये बताने की जरूरत नही है।अंसारी परिवार और मजलिस के एक होने से फायदा होता कि आप हिस्सेदारी भी पाते और इज्जत भी रहती।

2022 के चुनाव में ये तो निश्चित है कि सपा अकेले सरकार नहीं बना रही है क्योकि उनका अपना वोट बैंक भी खिसक गया है। 2019 के चुनाव में मुसलमानों ने सपा बसपा दोनों पार्टियों के गठबंधन को 71%वोट किया। जबकि यादव और दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को चला गया। नतीजा सबके सामने है। अब भी यादव पूर्णरूप से सपा के साथ नहीं। सोशल मिडिया और सामाजिक स्तर पर यादव समाज का बरताव मुसलमानों के साथ रोजाना नफरती होता जा रहा है और अखिलेश यादव भी चुप हैं कि कहीं हिन्दु वोटर नाराज ना हो जायें। ऐसे में अगर मजलिस और अंसारी परिवार मिलकर 20 से 25 सीट जीत लेते हैं तो उनके बिना सरकार बनना कठिन होता और जो चाहते वो भी मिल जाता। उन दोनो के पास खोने को कुछ भी नहीं है और पाने को बहुत कुछ है। सिर्फ एक राजनीतिक कदम से सारी सेकुलर पार्टियां बैक फुट पर होंगी। काश! ऐसा हो जाता।

अनुवादक- खादिम अली मंजरी अल्मारूफ कै़श मुहम्मद कादरी गोरखपुरी
पूर्व प्रधानाचार्य मदरसा कलीमिया चिश्तीया अह्लेसुन्नत नक्शा बक्सा, महराजगंज युपी।

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