- गोरखपुर की विलायत मिली हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह अलैहिर्रहमां को
- बादशाह शाहजहां (1627-1658 ई.) के जमाने में कायम हुई शहर की दूसरी सबसे पुरानी मस्जिद व रौजा
- 26 अगस्त 2023 को है हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह का उर्स-ए-पाक
- जानिए कदीम जमाने में कैसे आबाद हुआ जाफरा बाजार
गोरखपुर। जाफरा बाजार में ‘सब्जपोश’ खानदान बहुत जमाने से आबाद है। 26 अगस्त 2023 को इस खानदान के और गोरखपुर के सबसे बड़े वली में शुमार हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह का उर्स-ए-पाक है। पेश है हजरत मीर कयामुद्दीन शाह व खानदाने सब्जपोश की तारीख –
सैयद शाहिद अली शाह सब्जपोश अपनी किताब ‘दीवाने फानी’ में अपने खानदान सब्जपोश के बारे में लिखते हैं कि सुल्तान सिकंदर लोदी के जमाने में उनके पूर्वज सैयद अहमद मक्की नजफ अशरफ से हिन्दुस्तान तशरीफ लाए और अयोध्या में ठहर गए। सैयद अहमद मक्की के साहबजादे हजरत मीर सैयद मूसा हजरत सैयद असद्दुदीन आफताबे हिन्द जफराबादी के मुरीद व जलीलुलकद्र खलीफा थे और आप ही की दुआ से बाबर को हिन्दुस्तान की बादशाहत मिली। हिन्दुस्तान के हमले से पहले किसी दरवेश ने बाबर को खबर दी की जब तक हजरत मीर सैयद मूसा तुम्हारे लिए दुआ नहीं करेंगे, हिन्दुस्तान की बादशाहत तुमको नहीं मिल सकती। बाबर फकीर का भेष बदलकर आपकी खिदमत में हाजिर हुआ और अर्ज करके दुआ चाही। आपने फरमाया तू मस्जिद बनवाने का वायदा करे तो मैं तेरे लिए दुआ करुं। बाबर ने वायदा किया तो आपने बशारत दी कि अल्लाह तुझको फतह देगा। बाबर फतह करता हुआ अयोध्या पहुंचा तो वायदे को पूरा करने के लिए हाजिरे खिदमत हुआ और अर्ज किया कि मस्जिद आप अपने एहतमाम से बनवाइए।
आपकी औलाद से चंद पुश्तों के बाद एक शाख परगना सगड़ी (जो पहले जौनपुर का हिस्सा था अब आजमगढ़ का हिस्सा है) में आकर रही। दो तीन पुश्तों के बाद हुए हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन गोरखपुर तशरीफ लाए। शाहजहां (1627-1658 ई.) के आखिरी जमाने में या उससे कुछ कब्ल। जहां आपने कयाम फरमाया (जाफरा बाजार) वह जंगल था। शहर उसके जानिबे शुमाल (उत्तर) था। जहां एक मोहल्ला पुराने गोरखपुर के नाम से बाकी है। बादशाह औरंगजेब के जमाने में शहजादा मुअज्जम शाह ने नया शहर बसाया। जिसका नाम मुअज्जमाबाद रखा।
मीर सैयद कयामुद्दीन के समय मस्जिद और हुजरे के सिवा कोई इमारत न थी। धीरे-धीरे सुकूनत और सहूलियत के लिए मजार और मस्जिद के गिर्दा गिर्द वसी हल्के व वसी पैमाने पर मुस्तहकम व शानदार इमारतें बनीं। वक्तन फवक्तन इजाफा होता रहा। आपके पीरजादे दो बार गोरखपुर तशरीफ लाए। उस वक्त गोरखपुर के काजी अबुल बरकात निजामाबादी थे।
मशायख-ए-गोरखपुर के लेखक सूफी वहीदुल हसन लिखते हैं कि हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह अलैहिर्रहमां के जद्दे अमजद हजरत मीर सैयद अहमद मक्की अलैहिर्रहमां सिकंदर लोदी के ओहदे में तशरीफ लाए और अयोध्या में कयाम पजीद हुए। आपकी औलाद से चंद ही पुश्तों के बाद एक शाख परगना सगड़ी जो उस जमाने में जिला जौनपुर का एक परगना था आकर रही। उसी शाख में एक बुजुर्ग हुए जिनका नाम हजरत मीर सैयद मारूफ अलैहिर्रहमां था। आपही के साहबजादे कुतबुल आरफीन हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन थे। कुदरत व मसियत यजदी का हमेशा से ये दस्तूर चला आ रहा है कि जब माबूदे बरहक किसी को नवाजना चाहता है तो वो उसे किसी कामिल बुजुर्ग के पास भेज देता है। चुनांचे ऐसा ही मौसूफ के साथ भी हुआ। हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह को एक जज्बा पहुंचा जो आपको खींचकर हजरत शैख मोहम्मद रशीद जौनपुरी अलैहिर्रहमां के दरबारे आलिया में ले आया। आप मुरीद हुए। खूब रियाजतें की, मुतआद्दी चिल्ले खींचे और सुलूक की मनाजिल तय कीं। पुराने वक्तों में दस्तूर था कि अच्छे मुरीद को इजाजत देकर किसी मकाम की विलायत भी सौंप दी जाती थी। आपके शैख ने खिलाफत अता फरमाई और ‘गोरखपुर की विलायत’ बख्शी।
बादशाह शाहजहां (1627-1658 ई.) का जमाना था। आपने गोरखपुर में जिस जगह आज आपका मजार (सब्जपोश हाउस मस्जिद के प्रागंण में) है उसी जगह अपनी अशा-ए-मुबारक नसब किया और फरमाया फकीर का यही मकाम है। आज तक आपकी औलाद यहीं आबाद हैं। अशा और नालैन बतौर तबर्रुक अभी तक महफूज है गलिबन। ‘गंजे अरशदी’ खानदाने रशीदी का एक कल्मी नुस्खा है जो तारीख भी है और मुसतनद भी। उसके हिस्से की नकल नाजरीन के पेशे नजर करता हूं क्योंकि और किसी जरिए से आपके हालात मालूम होना बहुत दुश्वार है। ये इक्तेबासात ‘दीवाने फानी गोरखपुरी’ के दीबाचा में मिल गई है
हजरत मीर कयामुद्दीन कुतबुल अकताब हजरत शैख मोहम्मद रशीद से मुरीद हुए। बादे बैअत सख्तरीन रियाजतें करके खिलाफत व इजाजत से सर्फेयाब हुए। हमेशा रोजे रखने और इबादत (कायेमुल लैल) के अलावा आप बहुत बाकमाल थे। नमाज और अवराद (विर्द) में मशगूलियत इस हद पहुंच चुकी थी कि बकद्रे जरुरत ही आदमियों से हम कलाम होते थे। निस्फ शब के बाद थोड़ा सा खाना तनावुल फरमाते। खुद फज्र के अव्वल वक्त हुजरे से बाहर आकर अजान पुकारते, नमाज में किरत इतनी तवील फरमाते कि अगर किसी को गुस्ल की हाजत होती तो बैतुलखला से फरागत हासिल करके बाद गुस्ल सुन्नते फज्र के फज्र की पहली रकात में शामिल हो जाता। शुगल में इनहेमाक और इस्तेगराक बेहद था। आपको देखने से खुदा याद आ जाता था। वतन कस्बा सगड़ी था वहां से गोरखपुर तशरीफ लाए और कयाम पजीद हुए। अकसर सआदतमंद आपके हलका-ए-इरादत में आए और बहुतों को हिदायत व खिलाफत बख्शी। जिसको उन्होंने बहुस्ने व खूबी कायम व दायम रखा। बहुतेरों को नमाजे माकूस तालीम फरमाई। अपने पीरो मुर्शीद से आपको बेपनाह मुहब्बत थी और वो भी आप पर इंतेहाई शफीक व मेहरबान थे। नमाज के मुताल्लिक आपका वाकया बहुत मशहूर है कि एक दफा नमाज में मशगूल थे कि एक काला बिच्छू आपके खिरके मुबारक में चला आया। नमाज कताअ न फरमाई और जिस हुजूरी व दिलजमई से अदा फरमा रहे थे उसमें बाल बराबर फर्क न आया। बाद नमाज जब खिरका उतारा। लोगों ने काले बिच्छू को देखा और उसे निकाला। जब जईफ हुए तो जौफ इतना था कि बगैर चौबी तकियों के जो बैतुलखला तक नसब थे बैतुलखला न जा सकते मगर नमाज अदा फरमाते तो पहरभर कयाम फरमाते थे और तकलीफ व मशक्कत का कुछ असर महसूस न होता था। तारीख 13, माह शव्वाल 1077 को आपके पीरो मुर्शीद ने आपसे फरमाया कि मीर सैयद जाफर और तुम हर दो अजीज कल कयामत में इस फकीर की नजात का सबब होगे। एक बार हजरत पीरो मुर्शीद के तशरीफ लाने पर मीर सैयद कयामुद्दीन चिल्ले से निकल कर कदमबोश हुए और आपने बाकमाले शफकत आगोश में ले लिया और चमचा दूध अपने हाथ से पिलाया। माह शव्वाल 1077 हिजरी की बींसवीं तारीख को हजरत पीर दस्तगीर ने मीर सैयद कयामुद्दीन को जिक्रे सलासी, गबंदी, कलंदरी की तालीम दी। जो कुछ फुकरा और औलिया में होता है वो सब आप में था। तमाम वक्त यादे मौला में गुजरता था। आपका विसाल 8 सफर 1128 हिजरी को हुआ, जबकि आपकी उम्र शरीफ सौ बरस से कहीं ज्यादा हो चुकी थी। मदफन मुबारक शहर गोरखपुर सहन हुजरा में बामकामे सुकूनत है। जिस वक्त आप विसाल बहक हुए पांच या छह घड़ी रात बाकी थी। आपके मजारे अक्दस की खाक शिद्दते दर्द के लिए आज भी अकसीर का हुक्म रखती है। मिसल मशहूर है कि शेर की औलाद शेर ही होती है। चुनांचें बुजुर्गी सिलसिला ब सिलसिला आपकी औलाद में खुलफा के अलावा भी मुंतकिल होती रही। आपकी तवज्जो खास और फजले खुदावंदी से हजरत शाह मीर मोहम्मद सालेह, हजरत शाह मीर अहमदुल्लाह, हजरत शाह मीर गुलाम गौस, हजरत शाह मीर मेंहदी, हजरत शाह मीर गुलाम रसूल जैसे जय्यद उलमा, फुकरा और साहिबे बातिन हजरात ने इसी शहर और उसके बाहर मारफत के दरिया बहाए और सैकड़ो हजारों अफराद की इस्लाहे बातिन में अपनी कुव्वतों को सर्फ किया। सभी हकीकत से आगाह तवज्जे में यदे तौला रखते थे। ‘साहिबे बहरे जख्खार’ ने भी सब्जपोश हाउस के बुजुर्गों का तज्किरा अपनी सहरे आफाक किताब में किया है।
हजरत रौशन अली शाह के खलीफा हजरत सैयद अहमद अली ने भी अपनी मशहूर किताब महबूबुत तवारीख में सब्जपोश हाउस के मशायख का तज्किरा किया है और इन हजरात की तमाम खुदादाद सलाहियतों की तरफ भी इशारा किया है।
“रहे वो रईसों में या सब्जपोश, बहुत जिरक और साहिबे अक्लो होश, मियां मेंहदी थे उनके भाई कलां, थे दरवेश कामिल वलीउज्जमां, वो थे खानदानी नजीबुल लतीफ, गुलाम गौस थे उनके वालिद शरीफ, अलीमुल्लाह थे शेख उनके करीब, निहायत थे सालेह बड़े खुशनसीब”
ऐसे मिली सब्जपोश की उपाधि
“गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास किताब के लेखक डा. दानपाल सिंह पेज नं. 65 व 66 पर लिखते हैं कि गोरखपुर में बसने वाले मुसलमानों का महत्वपूर्ण घराना सब्जपोशों का है। इनके पूर्वज अयोध्या छोड़कर एकांत में अपना शेष जीवन व्यतीत करने गोरखपुर के जंगलों में चले आये थे। यहां अवध के नवाब अासिफुद्दौला के समय सैयद शाह अब्दुल्लाह को जागीर मिली। इन्हीं के पोते सैयद शाह गुलाम को नवाब द्वारा सब्जपोश की उपाधि प्राप्त हुई जो इस घराने में आज भी चली आ रही है”
बादशाह शाहजहां के जमाने की मस्जिद में है वलियों की मजारें
जाफरा बाजार स्थित सब्जपोश हाउस मस्जिद के आहाता में करीब पंद्रह मजारे हैं। जिसमें हजरत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह अलैहिर्रहमां, हजरत मीर मोहम्मद सालेह, हजरत मीर मेंहदी, हजरत मीर अहमदुल्लाह हुसैनी, हजरत मीर गुलाम गौस, हजरत मीर अब्दुल्लाह, हजरत मीर हसन आदि की मजारें हैं। वहीं थोड़ी दूर पर हजरत गुलाम रसूल का मकबरा है। इस वक्त मस्जिद के खतीब व इमाम हाफिज रहमत अली निजामी हैं। यहां पांचों वक्त की नमाज के अलावा जुमा, अलविदा, ईद व ईद-उल-अजहा की भी नमाज होती है।
सन् 1860-63 ई. में जाफरा बाजार के मालिक नवाजिश अली व रफीउद्दीन थे
“मियां साहब इमामबाड़ा के पहले सज्जादानशीन मरहूम सैयद अहमद अली शाह अपनी किताब ‘महबूबे तवारीख’ में लिखते हैं कि सन् 1860-63 ई. में जाफरा बाजार मुहल्ले के मालिक नवाजिश अली थे, उनके साथ एक हिस्सेदार रफीउद्दीन थे, जो इस क्षेत्र का कारोबार देखा करते थे। रफीउद्दीन चक इस्लाम के रईस थे, मगर वह जाफरा बाजार के हिस्सेदार भी थे। इतिहास की किताब में दर्ज है कि 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुगलों ने अलीनगर, जाफरा बाजार व नियामत चक बसाया।
कीमती तबर्रुकात
सब्जपोश खानदान में मिस्र की लड़कियों के हाथों से बना डेढ़ सौ साल से अधिक पुराना गिलाफ-ए-काबा भी है। इसी के साथ है मदीना से लाया गया कदम-ए-रसूल व बगदाद से लाया गया हजरत गौसे पाक के मजार का पत्थर भी मौजूद है। काबा का गिलाफ, कदम रसूल, गौसे पाक के मजार का पत्थर जाफरा बाजार स्थित सैयद नौशाद अली सब्जपोश के घर में हैं जिसकी जियारत ईद-उल-फितर और ईद-उल-अजहा में करायी जाती हैं। सब्जपोश खानदान के सैयद दानिश अली सब्जपोश ने कुछ वर्ष पहले बताया था कि इन पवित्र वस्तुओं को सन् 1840 ई. में मीर अब्दुल्लाह पवित्र हज यात्रा के दौरान वापसी में लेकर आए थे। उन्होंने बताया कि सन् 1840 ई. में मीर अब्दुल्लाह के नेतृत्व में घोड़ों से हज करने के लिए एक काफिला तैयार हुआ। जब ये इराक स्थित बगदाद शरीफ पहुंचे तो उस वक्त हजरत गौसे पाक की मजार की दोबारा तामीर हो रही थी। उन्होंने मजार से निकले पत्थर को मजार के खादिम से तबर्रूक के तौर पर मांग लिया। इसके बाद हज करने अरब पहुंचे तो काबा शरीफ का गिलाफ उतारा जा रहा था। गिलाफ को हदिया के रूप में खास लोगों को काबा शरीफ का गिलाफ देने की परंपरा थी। मीर अब्दुल्लाह भी रईसों में शुमार थे। उन्हें भी दस्तयाब किया गया। वहीं मदीना शरीफ से उन्हें कदमें रसूल भी मिला। फिर वह लेकर गोरखपुर चले आए। तब से लेकर इन पवित्र वस्तुओं की जियारत बादशाह शाहजहां के जमाने की बनी मस्जिद में कराई जाती है। कुछ वर्ष पहले सैयद दानिश अली सब्जपोश ने बताया था कि उनके वंशज मीर शाह कयामुद्दीन शाहजहां के शासन काल में गोरखपुर तशरीफ लाए और यहीं छोटा सा रौजा व मस्जिद तामीर की। तब से यह मस्जिद कायम है। करीब 25 वर्ष पहले इसमें कुछ तामीरी काम कराया गया है।
Danish Ali Subzposh A bit of history for your liking as you are a soldier yourself….One gentleman by the name of Mir Fazlullah in my upline was a high ranking officer in the Nawabs army of lko that fought the British army at Buxar. As we all know we lost the battle and along with so many casualties on both sides , He was also Martyred at the battlefied., but not before scalping a few of the Gora sahibs.His grave is still there near the battlegrounds. He was a bachelor and all of 22. For his bravery and Martyrdom land grants were offered but his brother refused it . After many years His Nephew Mir Ghulam Rasool happened to be visiting the lko Nawab Asafuddaula’s court, He was again offered the land grants which he accepted and also the title of Subzposh . By the the turn if the century say in 1800 AD .The company Raj was firmly rooted in the Indo Gangetic plain and retribution followed upon which all Imperial land grants were destroyed by my forefathers . By 1840 all was quiet and then the elders bought lands anew by the remaining currency and coverted jungles into farmlands . To jab mai kahta hoon sabhi ka khoon shaamil hai yahan ki mitti mein…….I mean it.
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