ऐतिहासिक

शाही लोगों के शाही चोंचले

ग्वालियर महाराज की चांदी की रेल से एक मजेदार हादसे का शिकार हुए थे वायसराय

ग्वालियर मध्यप्रदेश का इकलौता शहर था जहां सड़कों और आम रास्तों पर कलकत्ता की तरह ट्राम रेल दौड़ती थी। सड़कों के अलावा ग्वालियर महाराज के महल के दावतखाने की लंबी चौड़ी मेज पर भी खूबसूरत चांदी की रेल दौड़ लगाती थी। मेहमान नवाजी में भी आगे थे सिंधिया महाराज….

फर्क सिर्फ इतना था महल वाली रेल इंसानों की जगह खाने~पीने की चीजों को एक कुर्सी से दूसरी कुर्सी पर बैठे मेहमानों तक पहुंचाती थी। श्रीमंत ज्योतिरादित्य सिंधिया जी के दादाजी श्रीमंत जीवाजी महाराज ने रेलगाड़ी के शौक को मेहमाननवाजी में तब्दील करके सबको चौका दिया था। इस रेल में खाने~पीने के आयटम सवारी करते थे।

‘आजादी आधी रात को’ पुस्तक में पेज नंबर 178/179 पर एक ग्वालियर के महाराज की दावत का दिलचस्प किस्सा दर्ज है।

हिंदुस्तान के हुक्मरानों को मालगुजारी , लगान और चूंगी से को भी टैक्स हासिल होता था । वह सब रकम उनके हाथों में रहती थी। इसलिए वे जिस तरह चाहते अपनी हर
मुमकिन हसरतों को पूरा कर सकते थे।

ग्वालियर के महाराज सिंधिया जिनकी रियासत का शासन हिंदुस्तान के सबसे बेहतरीन शासनों में से समझा जाता था। ग्वालियर की आवाम अपने राजा को बहुत मान~सम्मान देती थी। अंग्रेजों से भी उनके ताल्लुकात बेहतर थे। आए दिन मेहमानों के लिए दस्तख्वान बिछाए जाते थे।

महाराज के बहुत से शौक में से एक शौक बिजली की रेलगाड़ी को अपने मेहमान खाने में सजाकर रखना भी था। महाराजा ने अपने लिए जो खिलौना रेलगाड़ी बनवाई थी उसका तसव्वुर खिलौनों का शौकीन लड़का भी नहीं कर सकता।

शुद्ध चांदी से बनी ये रेलगाड़ी बहुत बड़ी मेज़ पर बिछाई गई पटरियों पर दौड़ती थी जिसका घेरा 250 फीट के लगभग था।

जिस मेहमान को जिस चीज की जरूरत होती है, वह ट्रेन के डिब्बों के ऊपर लगे कवर को खोलता है तो ट्रेन रुक जाती है। जैसे ही उसके कवर को बंद किया जाता है, ट्रेन फिर आगे चल देती है। मेहमानों को खाना खाने से ज्यादा रेल को देखने में लुत्फ आता था।

ठोस चांदी की रेल महल के उस बड़े से हाल के बीचोबीच रखी गई थी जहां शाही दावतें होती थी। रेल को महाराजा खुद आपरेट करते थे। महाराजा की कुर्सी के सामने एक बहुत बड़ा~सा बिजली का बोर्ड होता था जिस पर तरह तरह के खटके और बटन लगे हुए थे जिनसे ये रेलगाड़ी संचालित होती थी।

इस बोर्ड पर लगा कोई खटका दबाकर महाराज मेहमानों के सामने सब्जी तरकारी पहुंचा देते थे। दूसरा खटका दबाकर आलू और चपाती भेज देते। बावर्चीखाने में मेसेज भेजकर अपने मेहमानों के लिए खाने की मनचाही चीज का आर्डर भी मंगवा लेते थे। बटन दबाकर वो अपने किसी मेहमान के सामने से मिठाई का बर्तन हटा भी सकते थे और गाड़ी छुकछुक करती मेहमानों की खाली प्लेटों को भरने का काम भी बखूबी करती।

मेहमानों की नजरें खाने के आयटमों पर कम रेलगाड़ी पर ज्यादा होती। आगंतुक टकटकी लगाए रेल को ही घूरते रहते। शायद इसी घूरने की वजह से रेलगाड़ी को किसी की बुरी नजर लग गई होगी। नतीजन एक मजेदार हादसा हो गया।

एक मर्तबा रात के खाने में वायसराय और उनकी बेगम के लिए ग्वालियर महाराज ने बड़ी शान~ओ~शौकत के साथ दावत की महफिल रखी। खूबसूरत दस्तरख्वान सजाया गया। अचानक खिलौना रेलगाड़ी के बिजली के तार आपस में उलझ गए। वायसराय और उनकी मैडम साहिबा हक्का~बक्का देख रहे थे और बिजली की रेलगाड़ी खाने से भरे डिब्बों के घसीटती हुई दावत के कमरे में एक सिरे से दूसरे सिरे तक इधर~उधर भागी फिर रही थी।

निगोड़मारी रेल किसी मेहमान के ऊपर शोरबा उछालती, तो किसी के ऊपर भुना हुआ गौश्त फेंकती और किसी के ऊपर मटर के दाने गोलियों की तरह पड़ते। रेलों के इतिहास में भी शायद ऐसी दुर्घटना कभी नहीं हुई होगी , जिसमें वायसराय जैसे शाही मेहमान तक चपेटे में आए हो।

खैर शाही मेहमानों कुछ परोसते उनके सूट~बूट तरकारियों से रंग गए थे । लगता था जैसे पोशाकों ने आज जी भर के खाना खाया है। किसी की हंसी छूटी तो कोई गुस्से से आग बबूला हुआ। ग्वालियर महाराज मारे शर्म के पानी~पानी हो गए।

✍️ जावेद शाह खजराना (लेखक)

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