गोरखपुर

इमाम जै़नुल आबेदीन से सीखें समाज सेवा का सलीका : हाफ़िज़ महमूद

शहादत दिवस

गोरखपुर। चिश्तिया मस्जिद बक्शीपुर व सब्जपोश हाउस मस्जिद जाफ़रा बाजार में शनिवार को हज़रत सैयदना इमाम ज़ैनुल आबेदीन रदियल्लाहु अन्हु के शहादत दिवस पर महफिल हुई। क़ुरआन ख़्वानी व फातिहा ख़्वानी की गई।

चिश्तिया मस्जिद के इमाम हाफ़िज़ महमूद रज़ा क़ादरी ने कहा कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन की पैदाइश 5 शाबान 38 हिजरी को मदीना शरीफ में हुई। आपके वालिद का नाम हज़रत इमाम हुसैन व वालिदा का नाम हज़रत शहर बानू है। आप अइम्मा अहले बैत के चौथे इमाम हैं। 61 हिजरी में जंगे कर्बला के मौके पर आप बहुत बीमार थे। इमाम हुसैन ने आपको खिलाफत और इमामत अता फरमाई। आपकी इबादत, इल्म, हुस्ने अख़्लाक, सब्र और सख़ावत मशहूर है। हज़रत इमाम हुसैन के पुत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन जो कर्बला के मैदान में बीमारी की हालत में मौजूद थे, उन्होंने कर्बला में तमाम शहादतों के बाद वहां से शाम तक के सफर में अपने खुतबों से हज़रत इमाम हुसैन के मिशन को आगे बढ़ाया। आप की यह आदत थी कि आप पूरी रात इबादत-ए-इलाही में गुजारते और रात में पोशीदा रहकर खुद ग़रीबों और हाजतमंदों को जरुरत की चीज़ें पहुंचाते। आप हमेशा बुराई का बदला भी इस तरह देते थे कि ख़ताकार शर्मिंदा होकर अपनी ख़ता की माफी मांग लेता और नेकी अख़्तियार कर लेता। जब इमाम जैनुल आबेदीन ग़रीबों की मदद करते थे तो उस समय वह अपने चेहरे को ढांप लिया करते थे ताकि सहायता लेने वाला उनको पहचानकर लज्जित न होने पाए। जब इमाम जै़नुल आबेदीन की शहादत हो गई तो उसके बाद उन लोगों को पता चला कि लंबे समय से उनकी मदद करने वाला अंजान इंसान और कोई नहीं इमाम ज़ैनुल आबेदीन थे। इस प्रकार से उन्होंने यह सबक दिया कि मुसलमानों को अपने मुसलमान भाई का ध्यान रखना चाहिए और छिपकर उनकी मदद करनी चाहिए। हमें हज़रत इमाम हुसैन व इमाम जै़नुल आबेदीन के बताए हुए रास्ते पर चलकर ही हमें अपनी ज़िन्दगी गुजारनी चाहिए।

सब्जपोश हाउस मस्जिद जाफ़रा बाजार के इमाम हाफ़िज़ रहमत अली निज़ामी ने कहा कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (इमाम सज्जाद) का नाम अली था किंतु अधिक इबादत के कारण उन्हें ज़ैनुल आबेदीन के नाम से ख्याति मिली जिसका अर्थ होता है इबादत की शोभा। उस काल की विषम परिस्थितियों में इमाम इमाम ज़ैनुल आबेदीन ने दुआओं, उपदेशों व समाज सेवा के माध्यम से समाज सुधार का काम किया।इमाम ज़ैनुल आबेदीन समाज में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की शिक्षाओं को प्रचलित करते रहे। यही कारण है कि जब तत्कालीन समाज में दास प्रथा को पुनः प्रचलित करने के प्रयास तेज़ हो गए तो इमाम जै़नुल आबेदीन ने दासों को ख़रीदकर अल्लाह की राह में उन्हें आज़ाद करना शुरू किया। वह दासों के साथ उठते-बैठते और उनके साथ खाना खाते थे। इमाम ज़ैनुल आबेदीन दासों को अच्छे शब्दों से संबोधित करते थे। इस प्रकार से अपनी विनम्रता और दूरदर्शिता से इमाम ज़ैनुल आबेदीन ने अपने दौर के संवेदनशील काल में भी वास्तविक दीन-ए-इस्लाम को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। मदीना के गवर्नर के हुक्म से आपको ज़हर दिया गया। जिससे आपकी शहादत 18 मुहर्रम 95 हिजरी में हुई। आपका मजार जन्नतुल बकीं मदीना मुनव्वरा में हज़रत इमाम हसन अल मुज्तबा के बगल में है।

अंत में सलातो सलाम पढ़कर मुल्क में अमनो अमान, तरक्की, भाईचारे की दुआ मांगी गई। महफिल में मो. ज़ैद, मो. अयान, मो. अली, मो. रुसान, मो. चांद, मो. आरिब, मुख्तार अहमद, सैयद तहसीन, शारिक अली, इमाम हसन, अब्दुल कय्यूम, फ़ैजान अली, बब्लू, मो. अरहाम, मो. अरसलान, हाफ़िज़ सद्दाम, हाफ़िज़ मुज़म्मिल रज़ा, हाफ़िज़ अनस रज़ा आदि ने शिरकत की।

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