गोरखपुर

सब्र की मेराज का नाम इमाम हुसैन है : कारी अनस

मस्जिदों व घरों में जारी जिक्रे शहीद-ए-कर्बला

गोरखपुर। शनिवार चौथीं मुहर्रम को मस्जिदों, घरों व इमामबाड़ों में जिक्रे शहीदा-ए-कर्बला की महफिलों का दौर जारी रहा। उलेमा-ए-किराम ने कर्बला के शहीदों, अहले बैत व सहाबा-ए-किराम की शान बयान की। अकीदतमंदों ने क़ुरआन ख़्वानी, फातिहा ख़्वानी व दुआ ख़्वानी की। शीरीनी बांटी।

हुसैनी जामा मस्जिद बड़गो में मौलाना मो. उस्मान बरकाती ने कहा कि शहीद-ए-आज़म इमाम हुसैन की क़ुर्बानी अपने मुल्क से मोहब्बत का संदेश देती है। इमाम हुसैन अपने नाना पैगंबर-ए-आज़म हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की पाक ज़मीन पर खूंरेजी नहीं चाहते थे, इसलिए मजबूर होकर अपना वतन छोड़ा। जाते समय इमाम हुसैन को वतन छोड़ने का बहुत दुख था। यही कारण है कि मुसलमान अपने मुल्क से बेइंतहा मोहब्बत करता है।

अक्सा मस्जिद शाहिदाबाद हुमायूंपुर उत्तरी में मौलाना तफज़्ज़ुल हुसैन रज़वी ने कहा कि हज़रत इमाम हुसैन ने अपने 72 साथियों के साथ यजीद की कई गुना बड़ी फौज के साथ किसी मंसब, तख्तोताज, बादशाहत, किसी इलाके को कब्जाने अथवा धन-दौलत के लिए जंग नहीं की बल्कि पैगंबर-ए-आज़म के दीन-ए-इस्लाम व इंसानियत को बचाने के लिए जंग की थी।

मकतब इस्लामियात चिंगी शहीद इमामबाड़ा तुर्कमानपुर में कारी मो. अनस रज़वी ने कहा कि यज़ीदियत हर दौर में हुसैनियत से हारती रहेगी क्योंकि हक से कभी बातिल जीत नहीं सकता। सत्य से असत्य को विजय नहीं मिल सकती कुछ देर को सत्य परेशान हो सकता है लेकिन उसे पराजित नहीं किया जा सकता। जब परेशानी आये तो सब्र से काम लेना है। सब्र की मेराज का नाम इमाम हुसैन है।

शाही मस्जिद बसंतपुर सराय में मुफ़्ती मो. शमीम अमज़दी ने कहा कि इमाम हुसैन अपने इल्म, अख्लाक और किरदार की वजह से अपने वालिद हज़रत मौला अली और नाना पैगंबर-ए-आज़म हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की तरह मकबूल थे। इमाम हुसैन व उनके साथियों ने यजीद फौज की बर्बता के सामने इंसानियत के धर्म को झुकने नहीं दिया। वह अपने परिवार समेत जालिमों के हाथों शहीद हो गये, लेकिन दुनिया को संदेश दे गए कि सही कदम उठाने वाला मर कर भी हमेशा ज़िन्दा रहता है।

मुकीम शाह जामा मस्जिद बुलाकीपुर में मौलाना मो. फिरोज निज़ामी व मौलाना रियाजुद्दीन क़ादरी ने कहा कि इंसानियत और दीन-ए-इस्लाम को बचाने के लिए पैगंबर-ए-आज़म के नवासे हज़रत इमाम हुसैन ने अपने कुनबे और साथियों की अज़ीम क़ुर्बानी कर्बला के मैदान में दी। हज़रत इमाम हुसैन का काफिला 61 हिजरी को कर्बला के तपते हुए रेगिस्तान में पहुंचा। इस काफिले के हर शख्स को पता था कि इस रेगिस्तान में भी उन्हे चैन नहीं मिलने वाला और आने वाले दिनों में उन्हें और अधिक परेशानियां बर्दाश्त करनी होंगी। बावजूद इसके सबके इरादे मजबूत थे। अमन और इंसानियत के ‘मसीहा’ का यह काफिला जिस वक्त धीरे-धीरे कर्बला के लिए बढ़ रहा था, रास्ते में पड़ने वाले हर शहर और कूचे में जुल्म और प्यार के फर्क को दुनिया को बताते चल रहा था।

जामा मस्जिद रसूलपुर में कारी मुख्तार अहमद ने कहा कि बुराई का नाश करने के लिये पैगंबर-ए-आज़म के नवासे हज़रत फातिमा के जिगर के टुकड़े हज़रत अली के सुपुत्र इमाम हुसैन, उनके परिवार व साथियों सहित कुल 72 लोगों ने क़ुर्बानी दी। इमाम हुसैन ने क़ुर्बानी देकर दीन-ए-इस्लाम व मानवता को बचा लिया। आज वर्तमान दौर में हज़रत इमाम हसन-हुसैन की क़ुर्बानी को याद कर स्वच्छ समाज निर्माण करने की जरूरत है।

वहीं मेवातीपुर इमामबाड़ा के निकट, इमामबाड़ा पुराना गोरखपुर गोरखनाथ, बेलाल मस्जिद इमामबाड़ा अलहदादपुर, शाही मस्जिद तकिया कवलदह, ज़ोहरा मस्जिद मौलवी चक बड़गो, दारुल उलूम अहले सुन्नत मजहरुल उलूम घोसीपुरवा, नूरी मस्जिद तुर्कमानपुर, गौसिया मस्जिद छोटे काजीपुर आदि में भी ‘जिक्रे शोहदा-ए-कर्बला’ महफिल हुई। नात व मनकबत पेश की गई।

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