आज, 18 जून, वह दिन है जब रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी जान मादर-ए-वतन पर न्योछावर कर दी थी। यह सिर्फ़ एक तारीख़ नहीं, बल्कि एक ऐसी दास्तान है जो बहादुरी, ग़ैरत और बेमिसाल क़ुर्बानी की याद दिलाती है। उनका यौम-ए-शहादत हमें यह पैगाम देती है कि जब क़ौम पर आफ़त आए तो हर फ़र्द का फ़र्ज़ है कि वह अपने वतन के लिए खड़ा हो, चाहे हालात कितने ही मुश्किल क्यों न हों।
रानी लक्ष्मी बाई का नाम हिंदुस्तान की तारीख़ में सुनहरी हुरूफ में लिखा गया है। उन्होंने 1857 की जंग-ए-आज़ादी में एक ऐसी शानदार मिसाल क़ायम की थी जिसने अंग्रेज़ी हुकूमत की बुनियादें हिला दीं थीं। वह सिर्फ़ एक हुक्मरान नहीं थीं बल्कि एक जंगजू, एक सिपहसालार और एक ऐसी क़ायद थीं जिन्होंने अपनी रियासत को बचाने के लिए आख़िरी साँस तक मुक़ाबला किया। उनकी ललकार “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी” आज भी हर हिंदुस्तानी के दिल में गूँजती है। उन्होंने साबित किया कि औरत कमज़ोर नहीं होती, बल्कि वह वक़्त आने पर अपने मुल्क की ढाल बन सकती है, तलवार उठा सकती है और दुश्मनों को ख़ाक चटा सकती है।
रानी लक्ष्मी बाई की फ़ौज में न सिर्फ़ हिंदू बल्कि मुस्लिम सिपाही भी शाना ब शाना लड़े। उनके मशहूर तोपची, ग़ौस मोहम्मद ख़ान, और उनकी मुहाफ़िज़, ख़ुदा बख़्श, जैसे नाम इस बात का मुँह बोलता सबूत हैं कि रानी ने मज़हब नहीं बल्कि सलाहियत और वफ़ादारी को तरजीह दी। उनकी क़यादत में हिंदू और मुसलमान, सबने मिलकर एक ही मक़सद के लिए जंग लड़ी – ‘आज़ादी’। यह इस बात का सबूत है कि जब मुल्क का मामला हो तो हमारे दरमियान कोई तफ़रीक़ नहीं होनी चाहिए। रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी शहादत से यह पैग़ाम दिया कि हमारी सबसे बड़ी ताक़त हमारे इत्तेहाद और यकजहती में पिन्हा है।
आज जब हम उन्हें याद कर रहे हैं, तो हमें उनके हौसले और जज़्बे को अपने अंदर ज़िंदा करना चाहिए। आइए हम सब मिलकर एक ऐसे हिंदुस्तान की तामीर का अहद करें जो रानी लक्ष्मी बाई के ख्वाबों का हिंदुस्तान हो – एक ऐसा हिंदुस्तान जहाँ हर शहरी, बग़ैर किसी मज़हब, ज़ात-पात या रंग-ओ-नस्ल के इम्तियाज़ के, अपने मुल्क की तरक़्क़ी और खुशहाली के लिए कोशाँ रहे।
रानी लक्ष्मी बाई को हमारा सलाम! उनकी क़ुर्बानी हमेशा हमें हक़ और सच्चाई की राह पर चलने की तरग़ीब देती रहेगी।