इस्लामी तारीख़ की एक अहम जंग जिसमें मुसलमानों की तादात बहुत कम और कुफ्फार की तीन गुना ज्यादा थी लेकिन अल्लाह तआला ने इस जंग में मुसलमानों की मदद फरमाई और फतह हासिल हुई।
जब नबी करीम ﷺ हिजरत करके मदीना तशरीफ़ लाए तो ये बात कुफ्फार ए मक्का को नागवार गुज़ारी और वो मुसलमानों से इंतकाम लेने की तदबीर में लग गया।
इधर नबी करीम ﷺ को जब काफ़िले की ख़बर पहुँची तो आप ﷺ ने अपनी एक जमाअत को हुक्म दिया काफ़िले को रोकने के लिए (ये जंग के इरादे से नहीं भेजी गई थी इसलिए कोई जंगी सामान भी नहीं था) लेकिन किसी तरह उस काफ़िले को जमाअत की ख़बर हो गई।
उस काफ़िले के अमीर अबू सुफियान (जो फतह मक्का के मौक़े पर मुसलमान हुए थे) ख़बर पाते ही अपने काफ़िले के साथ दूसरे रास्ते से मक्का की तरफ़ बढ़े और एक शख़्स को मक्के की तरफ़ भेज दिया ताकि कोई मदद मिले।
इधर अबू सुफियान मक्के पहुँच गए और अबू जहल को ख़बर भेजी की वापस आ जाए लेकिन इंतकाम और लश्कर के घमंड से वो मदीने की तरफ़ बढ़ता गया।
इधर नबी करीम ﷺ को जब इस बात की ख़बर हुई की कुफ्फार ए मक्का लश्कर के साथ मदीने की तरफ़ बढ़ रहे हैं तो आप ﷺ ने अंसार और मुजाहिरीन सहाबा (रज़ी०) के साथ मशवरा किया…
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक (रज़ी०), हज़रत उमर (रज़ी०), और बाक़ी सहाबा ने बड़ी बहादुरी से जवाब दिया और कहा कि
हम उस कौम बनी इसराइल की तरह नहीं है जिन्होंने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से कह दिया था कि “तू और तेरा रब दोनों जाकर लड़ो, हम तो यही बैठे तमाशा देखेंगे” गोया के तमाम सहाबा (अंसार और मुहाजरीन) जंग के लिए और कुफ्फार के मुक़ाबले के लिए तैय्यार हो।
मक्के वालों का बढ़ता हुआ ज़ुल्म और लगातार सरकशी जंग ए बद्र की अहम वजह थी.. इस जंग की सब से ख़ास बात ये है कि इस में फौज को एक ऐसा कमांडर कमांड कर रहा था जिसने अब से पहले कोई जंग नहीं लड़ी थी यानी नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम।
मक्के वालों के लश्कर में तक़रीबन 1100 लोग थे जब कि मुसलमान महज़ 313. इतनी कम तादाद का अल्लाह के रसूल को एहसास था. आप ﷺ रात भर अल्लाह की बारगाह में बड़े दिल सोज़ अंदाज़ रो रो कर दुआएँ करते रहे. आप ﷺ कहते थे:
“या अल्लाह! तूने जो मुझ से वादा किया है उसे पूरा कर, या अल्लाह जो तूने मुझ से जो वादा किया वो मुझे अता कर, या अल्लाह अगर ये जमात खत्म हो गई तो ज़मीन पर तेरी इबादत नहीं होगी।”
आप ﷺ ज़ार ओ क़तार रोते जाते थे. सय्यदिना अबू बक्र सिद्दीक आपको ढ़ारस बंधाते और कहते कि
” या रसूल-अल्लाह अल्लाह अपना वादा पूरा फ़रमाएगा”।
अपने महबूब ﷺ के इस तरह रोने और फ़रियाद करने से अल्लाह की रहमत को जोश आ गया. और अल्लाह ने अपने महबूब को हिम्मत बंधाते हुए कहा:
اَنِّىْ مَعَكُمْ فَثَبِّتُوا الَّـذِيْنَ اٰمَنُـوْا ۚ سَاُلْقِىْ فِىْ قُلُوْبِ الَّـذِيْنَ كَفَرُوا الرُّعْبَ فَاضْرِبُوْا فَوْقَ الاعناق
मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम मुसलामानों के क़दम जमाओ, मैं कुफ़्फ़ार के दिलों में तुम्हारी रौब डाल दूँगा तुम उनकी गर्दनों पर मारो। 8:12
17 रमज़ान तपती हुई दोपहर में जंग ए बद्र शुरू हुई. सब से पहले अत्बा बिन रबीआ शैबा बिन रबीआ और वलीद बिन अत्बा आए और हुज़ूर ने तीन अंसारी सहाबा(मदीने के रहने वाले ) को उनके मुकाबिल भेजा तो मक्के वालों ने कहा कि ” ए मुहम्मद! हमारी बराबरी के लोगों को भेजो इनके खून से हम अपनी तलवार नहीं गंदी करना चाहते तो हुज़ूर ने हज़रत अली रज़ि0 हज़रत हम्ज़ा रज़ि0 और हज़रत उबैदा रज़ि0 को भेजा और तीनों सहाबा ने तीनो दुश्मनों को जहन्नम वासिल किया।
हुज़ूर ने इस जंग में एक अलग क़िस्म की बड़ी कारामद टेक्निक अपनायी! वो ये थी कि आपने अपने फौजियों को त्रिकोणीय लाइन में इस तरह खड़ा किया था कि किसी भी फौजी की पीठ दिखायी नहीं दे रही थी. अहले मक्का इस टेक्निक से परेशान हो गए कि इन पर वार कैसे करें. और बिल आख़िर दुनिया की इस बे मिसाल जंग में सच्चाई की जीत हुई और इस्लाम का झंडा बुलंद हुआ. दीन के दुश्मन रुसवा हुए। उन्हें रुसवा ही होना था।।
जंग में लश्करों की तादात:
۞मुसलमान 313, घोड़े 2, ऊंट 70, जंगी सामान की तादात बहुत कम थी, लश्कर में कमज़ोर और ज़ईफ़ थे।
۞कुफ्फारे मक्का 1000, घोड़े 300, ऊंट 700, जंगी सामान से लैश थे।
आगाज़ ए जंग:
जंग ए बद्र का आगाज़ 17 रमज़ान सन 2 हिजरी में हुआ। सहाबा (रज़ी०) की जमाअत भले ही कम थी लेकिन जोश व खरोश में कुफ्फार से कहीं ज़्यादा थी।
शहादत:
जंग ए बद्र में कुल 14 सहाबा (रज़ी०) शहीद हुए जिनमें 6 मुहाजरीन और 8 अंसार थे। शहीदों को वहीं दफ़न किया गया।